सत्यं ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात्, मां ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
सही है यह कथन। पर तब क्या, जब किसी अप्रिय सत्य को उजागर ना करने के कारण पूरा समाज ही गुमराह हो जाए, और एक असत्य कथन सत्य पर इसीलिए हावी हो जाए क्यूँकि उस सत्य को उजागर करने की हिम्मत ही नहीँ हो किसी मेँ। लिखना मुझे अच्छा लगता है। और अच्छा लगता है तो इसे इसकी गरिमा के साथ लिखूँगा। अब तक मैंने जो भी समाज में देखा है उसे अपनी नजर के हिसाब से लिखूँगा, चाहे मेरी सोच समाज में मुझे घृणा का पात्र ही क्यूँ न बना दे। अगर ना लिखता हूँ तो कलम पकड़ने का हक मुझे कतई भी नहीँ। और न ही किसी की घृणा दृष्टि से मैँ बदल जाऊँगा। अवश्य बदलूँगा, अगर सामने वाले के तर्क मुझे खुद से अधिक सटीक लगे।
एक नहीँ अनेकोँ बार पुरुष जाति पर लांछन देखा, प्रतिदिन देखा। और देखकर खुशी हुई कि उस दल मेँ कभी कभी महिलाओँ से अधिक पुरुष भी थे। हां, जरा सांप्रदायिक भी बनूंगा मैँ। पुरुष जाति को तो भगवान ने ही कलंकित कर के भेजा है धरती पर। अब उसकी मानसिकता वे क्या समझेँ जो कभी पुरुष थे ही नहीं। मुद्दे की बात करूँगा। स्त्री की तो मैँ नही जानता। न तो कभी किसी स्त्री से या किशोरी से ही नजदीक हो पाया। मां के साथ बहुत दिन गुजारे। बहन के साथ शायद ही कभी रहा। समाज में कई नारियों को देखा। कई नेक थीं। कई इतनी कुटिल कि घर बर्बाद कर रखा था। कई नारियां देखीं जो पुरुषों की सताई थीं, पर हर ऐसे पुरुष की लगाम किसी न किसी नारी के हाथ में देखी, जो उसे मनचाहे तरीके से नचा लेती थी। और सबसे हास्यास्पद बात तो यह होती है कि वे दोनोँ औरतेँ भी तमाम औरतों की तरह घोर नारीवादी होतीं हैं और पुरुष समाज को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। खैर, नारी के जटिल मस्तिष्क की गुत्थी समझने में तो चाणक्य भी खुद को असमर्थ मानते थे। मैं कौन से खेत की मूली हूँ। मै तो बस पुरुषों की बात करूंगा। मैंने देखा है।हर मर्द किसी न किसी औरत की उंगलियों पर नाचता है। क्या करे, मर्दानगी का अभिप्राय ही नारीत्व की सेवा में सबकुछ हार बैठना है। मर्दानगी का उद्भव ही नारीत्व के संदर्भ में हुआ है। और इसी मर्दानगी के हवाले पर कुछ भी कर सकता है। कितना भी बड़ा निकम्मा हो, एक बार मर्दानगी की ललकार फूँक दो, अगले दिन पैदल कलकत्ता जाने को तैयार हो जाएगा।
और फिर मर्द को परिभाषित करने का अधिकार भी नारी जाति को ही है। जिस मर्द का सर नारी के सम्मुख झुकता हो, वह सच्चा मर्द। ताकतवर होने से मर्दानगी थोड़े न आती है, मर्द वही है जो औरतों का सम्मान करता हो। और नारी जाति में बसे विभिन्न वर्गों के अनुसार यह परिभाषा बदलती भी जाती है। किसी वेश्या के लिए मर्द की परिभाषा तो सर्वविदित है। मैं उसे एक तुच्छ वर्ग की तुच्छ सोच मानकर नजरअंदाज नहीं करूँगा। मैंने कई बार सम्मान से देखा है नारीवादियों को जब वे इस वर्ग के अधिकारों के लिए आवाज उठाती हैं। फिर उनकी सोच भी तो उतनी ही स्थापित हुई। कई और परिभाषाएं देखी। कभी कभार कुछ लड़कियों को ये भी कहते सुना कि जब किसी लड़के को कोई लड़की प्रेम में धोखा दे दे और दूसरे प्रेमी का हाथ थामे ले, फिर भी वह लड़का अगर उस लड़की का उतना ही सम्मान और उतनी ही सेवाभाव रखता है उसके प्रति तो वो सच्चा मर्द है। किस्सा मुख्तसर यह कि पौरुष तभी तक है जब तक वह नारीजाति के मनोनुकुल हो। मुझे कतई भी आपत्ति नहीं इससे। मतलब देखें तो हर नारी में नारीत्व होता है चाहे कैसी भी हो, लेकिन पुरुषत्व हर पुरुष में नहीं, केवल उनमें होता है जिसमें नारीजाति की सहमति हो। मुझे कोई आपत्ति नहीँ इस सत्य से। बस कहना इतना चाहता हूँ कि पुरुष जाति औरतो की उँगलियो पर नाचने के लिए ही बनी है। नारी जाति हमेशा से ही पुरुष जाति पर हावी रही है, कई बार नारीत्व की शक्ति के सम्मुख उनकी यह विवशता विनाश का कारण भी बनी है। समुद्र मंथन के पश्चात निकले अमृत को भी नारीत्व के वशीभूत होकर असुरो ने गँवा दिया था। यह कोई नई बात नहीँ बता रहा मैँ। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि नारीत्व के सम्मुख एक पुरुष दयनीय रूप से विवश रहा है। उसकी कोई गलती नहीँ इसमें। यह विधाता का शाप है उसे, या हो सकता है वरदान भी हो। नर समुदाय का विकास ही इसी प्रकार हुआ है। इस पृथ्वी पर मौजूद हर योनि की कहानी है यह। कि मादा एक शासनकर्त्री की तरह बस नर के प्रणय की भूख और तड़प का आनंद उठाती है, और अपने मन माकूल किसी एक के सामर्थ्य का स्तर देख उसे अपना साथ भीख में दे देती है और वह नर इसी भीख में अपना जीवन सफल मान लेता है। और प्रायः इस निर्मम प्रेमलीला का अवशेष किसी दूसरे नर की जीवनलीला का अंत होता है। यह सृष्टि ऐसी ही बनी है। चार्ल्स डर्विन के सिद्धांत भी इसकी पुष्टि करते हैं। पुरुष जाति में यह गुण उनके पूर्वजों द्वारा विरासत है, पूर्वजों से आया है।
और पुरुष होने के नाते एक और सत्य बताउंगा अपनी जाति के बारे में। सभी हैं औरतों के ही गुलाम पर मिथ्या दंभ भरे रहते हैं अंदर। अरे किसी का वश नहीं चलता। अगर चलता है तो या तो वह झूठा है या फिर महात्मा बुद्ध। नारी में ऐसा क्या होता है कि पुरुष अपने मानस पर नियंत्रण खो बैठते हैं। वो है सुंदरता । प्रकृति का सबसे मारक अस्त्र। जिसपर मुग्ध होना स्वाभाविक है। सौंदर्य का प्रादुर्भाव ही मुग्ध करने के लिए हुआ है। और दुर्भाग्य से विधाता ने इस अस्त्र का सबसे बड़ा शिकार नर जाति को चुना है। पुरुष हूँ तो पुरुष की मानसिकता को समझता हूँ। पुरुष की बनावट शारीरिक और क्रियाओं के रूप से कठोर तो होती है, पर कोमलता की भूख होती है उसमें। प्रेम की भूख होती है। और अत्यंत प्रबल भूख होती है। जो युवावस्था में पहुँचने के साथ बलवती होती जाती है। युवावस्था के प्राथमिक समय में उसे प्रेम के दूसरे स्वरूप का ज्ञान होता है। जो कि आत्मीय से अलग होता है। शारीरिक प्रेम। और इस जानकारी के साथ वह बड़ा होता है। चाहे यह कथनीय न हो पर आत्मीय और शारीरिक प्रेम एक स्तर पर एक दूसरे के पूरक नजर आने लगते हैं। और यहाँ भी पुरुष को अपराध बोध से पूरी तरह मुक्त करूँगा मैं। उसकी शारीरिक संरचना ऐसी है। उसके शरीर में प्रवाहित होने वाले जैविक रसायनों का मानसिक विचारों से समावेश का परिणाम है यह। हर इंसान महात्मा बुद्ध नहीं हो सकते।और हो भी क्यों। एक सामान्य इंसान बनकर क्यूँ न रहे? तो फिर मुद्दे की बात। जिस चीज को अश्लीलता कहते हैं, उस तत्व का प्रादुर्भाव प्राकृतिक रूप से हो जाता है उस में। इस बात को रेखांकित कर लें। (मुझे स्त्री की मानसिकता का अबसद भी नहीं पता। मैं केवल पुरुष की ही बात करूँगा । और मुझे विश्वास है कि अधिकतर सहमत होंगे मुझसे) तो फिर पहले जैसा कहा था कि पुरुष में प्रेम और कोमलता की भूख होती है। वह तड़प उठता है इसके लिए। और इसका एकमात्र स्रोत होती है एक नारी। जिसके शरीर में कोमलता कूट कूट कर भरी होती है। इसी कोमलता में अस्तित्व छुपाकर डूब जाना चाहता है पुरुष। अपने चारों ओर फैले सौंदर्य के प्रति सजग हो उठता है। और इसीलिए बदनाम होता है हर गुजरती तरुणी पर नजर फेरने के लिए। अब यहाँ भी दो पहलू हैं। जो निम्न कोटि के पुरुष हैं वो अपनी नपुंसकता का परिचय उस गुजरती स्त्री पर फब्तियां कसकर और अपनी औकात दिखाकर करता है। देखता तो भद्र पुरुष भी है। पर उसकी मानसिकता कुछ और होती है। वह सौंदर्य का आनंद लेता है। उसकी सोच सृजनात्मक होती है। उसकी सोच में खोट नहीं होता है, कम होता है या होने पर वह उसे अभद्र व्यवहार द्वारा दृश्य नहीं करता। यही अंतर होता है एक व्यभिचारी और अच्छे पुरुष में। सौंदर्य पर मुग्ध तो दोनों होते हैं प्रकृति की आज्ञा के अनुसार, पर जहाँ बलात्कारी की सोच विध्वंसक होती है, वहीं एक सच्चे मर्द की सोच उस सौंदर्य की रक्षा करने की होती है। हां, मेरी नजरों मे वही है सच्चा मर्द।
अब रुख बदलते हैं जरा। बलात्कारी की परिभाषा मैँने दे दी। वह जो सौंदर्य को देखकर उसे नष्ट करने को व्याकुल हो उठता है। यह परिभाषा भी पूर्ण नहीँ। कई बार वजहें बदले की भावना हो सकतीँ हैँ, कई बार अतृप्त शारीरिक अवस्था भी हो सकती है। हाँ, बच्चोँ और वृद्धाओँ पर यदि ऐसे कुकृत्य होँ तो उसे मानसिक रोग के सिवा और कुछ नहीँ कह सकते।अब मैँ इतने विस्तृत लेखन के केंद्र पर आऊँगा। कि औरतोँ द्वारा छोटे वस्त्रोँ का प्रयोग किस हद तक सही है और उसके खिलाफ उठती आवाज किस हद तक गलत है। बलात्कार इत्यादि कुकृत्योँ का जिम्मेवार अगर कोई ऐसे पहनावे को ठहराता है तो वह कहीं न कहीं अपने मस्तिष्क में एक बलात्कारी सी मानसिकता लेकर घूमता है। वहीं अगर कोई ऐसे कपड़ों के प्रयोग को पूरी तरह निर्दोष कहता है तो वह ब्रह्मांड का सबसे बड़ा कुतर्की और स्वार्थी है। या तो उसके कपड़े की दुकान ऐसे कपड़ोँ की बिक्री से चलती है या फिर उसे आनंद आता है चुपचाप अपने समक्ष खुले जिस्म का अवलोकन करने मेँ। पहले ही कहा था, पुरुष विवश होता है सौंदर्य के समक्ष। और किसी युवती के खुले अंग उसकी कामाग्नि को भड़काएँगे ही। उसकी नजर फिसलने को बाध्य होगी ही भले ही वह लोकलज्जा के डर से खुद को रोक ले। उसके मन मेँ कामेच्छा भड़केगी ही, हॉर्मोन्स का संचार होगा ही। इसी कामेच्छा से लिप्त विचारोँ को तो अश्लीलता का नाम दिया जाता है। बस एक भद्र-पुरुष उस कामेच्छा को दबा लेगा। और उस सौंदर्य की ओर रक्षात्मक दृष्टि से देखेगा। और एक बलात्कारी जिसे इंसान कहलाने का अधिकार कतई नहीं, आगे का कदम ले लेगा। और मैँ ऐसे लोगोँ को समाज से भिन्न समझता हूँ और बेहतर समझता हूँ पुरुष समाज की मानसिकता पर प्रकाश डालना। तो संक्षेपन यही कि कुछ भी हो, पर छोटे कपड़ों का इस्तेमाल भूखे कुत्ते को हड्डी का टुकड़ा दिखाकर लुभाने के समान है, और अगर वह कुत्ता फिर भी नियंत्रण में है तो वह कुत्ता अवश्य ही आदर्श है। और यदि झपटकर आपही को खा जाए तो बिलकुल सही नहीँ; पर किसी भूखे कुत्ते के सामने हड्डी लहराना कहाँ की समझदारी है? क्या अपने अंग-प्रदर्शन से आप उस भूखे समाज को तड़पा नहीं रहीं? जो दानव होते हैँ वो नियंत्रण खो देते हैँ और एक सामान्य पुरुष पर इसका असर केवल मानसिक प्रदूषण तक सीमित रह जाता है। और इस मानसिक प्रदूषण लिए पुरुष का कोई दोष नहीं। और इतने लंबे लेख में मैने केवल यही पुष्टि की है। अरे, कितना भी नैतिक शिक्षा का नारा लगा लो लेकिन ऐसे वस्त्र पहनकर आप नैतिकता पर सीधा चोट करती हैँ। एक प्रौढ़ पुरुष संभाल ले स्वयं को संभव है, लेकिन एक युवा जिसे कभी प्रेम नहीं मिला, कभी किसी प्रेमिका के बाँहोँ का आसरा न मिला, एक किशोर जो शिक्षा ग्रहण कर रहा है उन सबको अंदर से झकझोर देगा। कोई नैतिक शिक्षा काम न देगी। ये प्राकृतिक गुण है पुरुष का। और आप अगर समाज का नैतिक उत्थान चाहती हैँ तो आपको भी साथ देना होगा और उसके लिए जरूरी है सार्वजनिक रूप से इन वस्त्रोँ का बहिष्कार। हां, स्थानविशेष पर सही है। अपने प्रेमी के साथ श्रृंगारपूर्ण क्षण एक उदाहरण है इसका। पर इसपर पूरी तरह छूट सही नहीं क्यूँकि नैतिक उत्थान किसी के रगों में बहते पौरुषपूर्ण द्रवों को नहीं रोक सकता। इस बात को समझें। इतनी कृपा तो कर ही सकती हैँ। हर कुछ को बलात्कार से ही ना जोड़ेँ। याद रक्खेँ। नैतिक उत्थान भी जिम्मेदारी है सबकी और उस के लिए यह रवैया सही नहीं। बहुत बातें छूट गई। क्षमा। लेख लंबा हो चला था।
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- प्रिय मित्र पल्लव... सबसे पहले तो मेरा अभिनन्दन स्वीकार कीजिये। वास्तव में बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने। कमोबेश अद्भुत-सटीक विवेचना की है आपने। पुस्तक को लेख में संपादित करना चाहेंगे तो कहीं-कहीं उलझन का आना स्वावभाविक ही है, जो कि पूर्णतः स्वीकार्य है।
ReplyDeleteउस उलझन को सुलझाने में पाठकों को कदाचित इस बात से कुछ सहायता मिले कि 'मर्द' वहाँ होते थे जहां 'औरत' होती थी। भारत मूलतः स्त्री-पुरुष की अवधारणा का समाज रहा है। यहाँ 'स्त्रैण' और 'पौरुष' गुण होते हैं। और हम यहाँ जिसकी चर्चा कर रहे हैं वह 'गुण' तो किसी रूप में नहीं है। कदाचित हमें 'प्रकृति' की दृष्टि से सोचने की आवश्यकता है।
जैसा भी था... निश्चय ही बात को इतना स्पष्ट, निर्भीक और दो टूक कहने के लिए आप अभिनन्दन और सम्मान के पात्र हैं। और यह सम्मान देकर मैं अनुग्रहीत हूँ।
आपका सेवक.