करवाचौथ व्रत पर एक दकियानूसी पुरुष की बड़बड़

आज हमारी, मतलब '‪#‎SahuCar‬' की अपनी कुटाई करवाने की अत्यंत तीव्र इच्छा है, अतएव हम 'नारी-मुक्ति' सम्बंधित विषय पर कटाक्ष करने का दुस्साहस कर रहे हैं। यदि इस आलेख के पश्चात एक सप्ताह कोई आलेख ना आया तो समझ लीजियेगा कि ये दीन लेखक या तो किसी हस्पताल में है या इसने देह त्याग दी।
बात पिछले वर्ष की है, करवा चौथ की संध्या। हम तो कुंआरे हैं, तो अकेले बैठे टीवी पर समाचार देख रहे थे। किसी चैनल पर ४-५ नारीवादी आंटियां बैठ कर ज्ञान पेल रही थीं कि कैसे करवाचौथ अत्यंत दकियानूसी तथा नारी के शोषण का प्रतीक है। इस पुरुष प्रधान समाज ने नारी को सदा बेड़ियों में बांधे रखने के लिए ऐसी प्रथाएं बनाई हैं। इनमें से हर आंटी ने माथे पर बड़ी बड़ी बिंदियाँ लगा राखी थीं...इतनी बड़ी बिंदियाँ कि उससे उनका आधा माथा ढँक गया था! इस बात को प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं थी कि ये आंटियां अत्यंत ज्ञानी एवं सत्यवक्ता थीं। पर मेरी दकियानूसी खोपड़ी में बात कुछ जम नहीं रहीं थी। मेरा मन भटकने लगा। क्या सच ये प्रथा नारी के दमन-शोषण का प्रतीक है? क्या इससे प्रेम की अभिव्यक्ति का कोई लेना देना नहीं? क्या अपने पति की लम्बी आयु कि कामना करना गलत है? क्या व्रत-प्रार्थनाएँ सचमुच कारगर होती हैं?

एक एक प्रश्न पर मन अपने तर्क लादने लगा। क्या व्रत से सचमुच आयु बढती है? इस प्रश्न का उत्तर तो विशुद्ध रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक। यदि नास्तिक हैं तो बाकी के सारे प्रश्न व्यर्थ हैं, परन्तु आस्तिक हैं तो नया प्रश्न जन्म ले लेता है - क्या पुरुष को ऐसे ही नारी की लम्बी आयु के लिए व्रत नहीं करना चाहिए? अब इस प्रश्न प्रश्न के भी दो भाग हैं - (१) क्या पुरुष को अपनी पत्नी के लिए कोई व्रत नहीं करना चाहिए (२) क्या स्त्री की लम्बी आयु की कामना पुरुष ने नहीं करनी चाहिए? मन में उत्तर कुछ इस प्रकार कौंधा - (१) यदि आप स्त्री और पुरुष प्रकृति को समझते हैं तो आप जानेंगे कि पुरुष की कामेच्छा स्त्री से हो सकता है क्वालिटी में कम हो परन्तु मात्रा में अधिक है। उसे स्त्री की अपेक्षा अधिक बार सम्भोग की भूख होती है, जो केवल एक स्त्री से पूरी होना साधारणतया कठिन है। तब भी यदि पुरुष अपनी पत्नी के प्रेमवश एवं संस्कारवश एक-पत्निमेव-व्रती हो तब तो वैसे ही वह व्रत आजीवन व्रतधारी है। इस बात पर किसी स्त्री का आक्षेप करना उसी प्रकार होगा जैसे कोई पुरुष किसी स्त्री को ये जतलाने का प्रयत्न करे कि मासिक धर्म के समय वो पीड़ा का केवल ढोंग करती है। और यदि कोई पुरुष आक्षेप करे तो पहले उससे उसके 'अनुभवों' के विषय में प्रश्न करना चाहूँगा। (२) अब बात स्त्री की लम्बी आयु की कामना की है, तो इस बात को यूँ समझिये कि पुरुष अत्यंत स्वार्थी जीव है। वैसे तो हर पति चाहता है कि आखरी श्वास तक उसका एवं उसकी पत्नी का साथ रहे, परन्तु भीतर ये चिंता होती है कि यदि मैं टें बोल गया तो मेरे पीछे उसका क्या होगा? इसी चिंता का लाभ जीवन बीमा वाले उठाते हैं! जो लोग वृद्धाश्रमों में जा चुके हैं या जिन्होंने किसी विधुर पुरुष को देखा है वो जानते हैं कि भावनात्मक रूप से एक विधवा से कहीं अधिक बुरी हालत विधुर की होतीं है। इसका एक कारण ये भी है कि वैवाहिक जीवन में पुरुष कई बातों के लिए अपनी पत्नी पर निर्भर हो जाता है। पर इस पीड़ा को जानते-समझते हुए भी पुरुष यही कामना करता है कि उसकी पत्नी को कभी उसके बिना ना रहना पड़े। वह अपनी पत्नी की चिंता में कुछ अधिक स्वार्थी हो जाता है। पर क्या यह मेरा कोरा कुतर्क है? अवश्य ही ऐसी कोई गूढ़ रहस्य की बात है जो मैं मंदमति नहीं जानता, और इसीलिए ये महान ज्ञानी आंटियां कदाचित सही कह रही हैं कि ये व्रत नारी के शोषण का प्रतीक है।

मैं अपने विचारों में भटक ही रहा था कि इन सारी आंटियों में चिल्ल-पों मच गयी। मानो सब झगड़ रहीं हों और आज एक दुसरे को चीर-फाड़ ही डालेंगी! मैं सोच में पड़ गया कि जब इनके तीव्र-स्वर सुन कर मैं डर गया तो इनके पतिदेव का क्या होता होगा? इतने में एक शांत एवं धीर गंभीर महिला ने नया दृष्टिकोण रखते हुए ये कहा कि इस व्रत को नारी को अपने पति के लिए प्रेम व्यक्त करने के एक अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए। बस इतना कहना था की सारी 'विशाल-बिंदी आंटियां' एक साथ उस महिला पर पिल पड़ीं कि यदि प्रेम व्यक्त करने का अवसर है तो पति भी क्यों नहीं रखते व्रत? मैंने पुनः अपने विचारों की छिछली गगरिया में डुबकी लगाई। सही बात है भाई, प्रेम व्यक्त करने का ये क्या तरीका हुआ? प्रेम तो प्रेमी युगल वैलेंटाइन डे पर व्यक्त करते हैं। एक दुसरे को ग्रीटिंग कार्ड दे कर, पुष्पगुच्छ दे कर, महंगे रेस्टोरेंट में डिनर कर के, सिनेमा जा कर ... बाकि व्रत तो तुच्छ तरीका हुआ ना! परन्तु यदि किसी के पास धनाभाव रहा तो क्या प्रेम का भी आभाव हो जायेगा? कदाचित! रही बात पुरुष के व्रत रखने की तो इस बिंदु पर पहले ही मैं उधेड़-बुन कर चुका था।

इतने में कहीं से 'फाइव पॉइंट समवन' के महान लेखक श्री चेतन भगत आ धमके नयी रीत ले कर कि अब वो भी अपनी पत्नी के लिए व्रत रख रहे हैं और दूसरों ने भी इसका अनुसरण करना चाहिए। वैसे यह काफी पुराना 'फैड' है परन्तु इन्हें शादी डॉट कॉम वालों ने अपने विज्ञापन के लिए ऐसा कहने को कहा था कदाचित। मुझे इन महान ज्ञानी पुरुष का लिखा एक लेख याद आया जिसमें ये इस बात का पक्ष रखते हैं कि क्यों एक नौकरीपेशा पत्नी किसी गृहणी से श्रेष्ठतर जीवनसंगिनी है। इस लेख में इन महानुभव ने अपनी माता और पत्नी की तुलना की थी एवं माता के सारे योगदानों को सिकोड़ कर केवल उन्हें 'फुल्का' बनाने वाली का स्थान दे दिया था। "देती है तो दे, वरना कट ले" इनकी कालजयी रचनाओं में से एक उपन्यास का संवाद है।बाकि इनके उपन्यासों के स्तर तथा उनमे कामुक दृश्यों के सस्ते विवरण पर मैं टिप्पणी भी नहीं करूँगा। परन्तु जो व्यक्ति धर्म-रीति के गूढ़ मर्म को छू भी नहीं पाया हो तथा सारे जग के समक्ष अपनी माता को केवल फुल्के बनानेवाली के रूप में दर्शाये क्या ऐसे व्यक्ति को रीति-रिवाज पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार है? क्या ये वैसा ही नहीं होगा जैसे कोई झोलाछाप डॉक्टर किसी रोगी को कोई दवाई थमा दे? वैसे चेतन जी को टीवी पर देख कर इनके 'मर्दाने' अंदाज़ से अत्यंत प्रभावित हुआ था मैं। कविवर कुमार विश्वास तथा बॉबी डार्लिंग से यदि कोई लोहा ले सकता हो तो वो निःसंदेह (अव)चेतन जी ही हैं! वैसे कदाचित व्रत ना कर के ये तथाकथित 'आदर्शवादी' पति यदि कभी-कभार घर के कामों में हाथ बंटा लें तो उनकी पत्नियाँ अधिक प्रसन्न होंगी। 

इन सारी बातों के बीच मुझे उस वयोवृद्ध जोड़े की याद आ गयी जिसे मैं ट्रेन में मिला था। दादी बता रहीं थी कि जब भी वह इस व्रत को रखती हैं तो कैसे दद्दू दिन भर उनकी देखभाल करते हैं। मतलब यदि दोनों ही व्रत रखने लगें तो देखभाल कौन करेगा? उफ़! मैं भी ना कैसे गरीबों वाली बातें करता हूँ! हाउ एल-एस ! ऐसी स्थिति में कामवाली बाई है ना! पर क्या वो स्त्री नहीं है? यदि आप इतने ही आदर्शवादी हैं तो क्या उसके प्रति कोई सम्मान की भावना नहीं रखोगे, करवाचौथ व्रतधारी पुरुषों? 

एक सत्य यह भी है कि करवाचौथ व्रत भारत के कुछ ही भागों में प्रचलित था। इसका प्रचलन बढ़ाने का श्रेय हिंदी फिल्मों को जाता है। पहले भावनाओं को माध्यम बना कर कम्पनियाँ अपने उत्पाद बेचा करती थीं, अब नारी सम्मान की चादर फैला कर विज्ञापन करती हैं; बाज़ारवाद 'नारी सम्मान' के नारे को भुना रहा है। इन्हीं सब के बीच धर्म और रीतियों के पीछे छिपे ज्ञान कहीं खो से गए हैं। चाहे कोई मुझे दकियानूसी ही क्यों ना कहे, पर धर्म पर ज्ञान मैं किसी विशाल-बिंदी वाली खोखली नारीवादी, 'परकटी' तितलियों और 'दिलरुबा' छाप पतियों से कदापि नहीं लूंगा। मेरे लिए धर्म एवं रीतियाँ स्वयं उनके मर्म समझने के प्रयास करने तथा सम्मानपूर्वक उनका पालन करने की बाते हैं, फैशन नहीं। 

जैसे अपने विचारों की गागर से बाहर आया, पाया कि टीवी पर आंटियाँ और अधिक तीव्रता से चीख रही थीं। बेचारे इनके पति, कभी इनके सामने मुंह खोलने की हिम्मत भी जुटा पाते होंगे? रिमोट से टीवी बंद कर मैं किसी और काम में जुट गया। 
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