बकरियों और भेड़ों का स्वाभाव भिन्न होता है—बकरी नियमों का पालन नहीं करती, स्वतंत्र होती है। भेड़ सदा अपने गडरिये का पीछा करती हैं। मानव समाज भी भेड़-बकरियों का झुण्ड ही तो है! यहाँ बकरियाँ कुछ नया ढूंढने में लगी रहती हैं, सदा नियमों को तोड़ती, जल धारा सी अपना मार्ग स्वयं बनाती… और भेड़—वही सदियों पुरानी भेड़चाल—चुपचाप अनुसरण करते हैं। मस्तिष्क को अधिक कष्ट दिए बिन चुपचाप अनुसरण करने वाले ही 'आदर्श नागरिक' होते हैं। कदाचित यही कारण है कि कुछ ईसाई पंथों के अनुसार शैतान का सर बकरे का दिखाया गया है तथा येशु को गडरिया मान भेड़ को आदर्श समझा जाता है। हिन्दुओं की कथाओं के अनुसार दक्ष प्रजापति के शिरच्छेद के पश्चात उन्हें नया सर बकरे का लगाया गया। समाज के बने रहने के लिए यह भी अनिवार्य है कि बकरियाँ कम हों, भेड़ अधिक।
संसार जंगल है। यहाँ गडरिये नहीं होते, यहाँ समय का खूंखार भेड़िया होता है - सदा घात लगा कर ताक में बैठा कि कब इसे किसी मेमने की गर्दन चबाने मिले। चूक अथवा असफलता का अर्थ है इस भेड़िये रुपी काल का ग्रास बन जाना। पाप-पुण्य कुछ नहीं, केवल कर्म और कर्मफल। किसी बकरी ने एक नया मार्ग ढूंढा जहाँ से हो कर नर्म स्वादिष्ट घाँस बहुतायत में खाने मिले, किसी भेड़ ने उसका पीछा किया और तदोपरांत भेड़चाल प्रारम्भ। मज़े की बात ये है कि, भेड़ें सदा से ही बकरियों/ बकरों की बलि भी चढ़ाते आई हैं और इनका पीछा कर नए घाँस के मैदानों तक पहुँचते भी।
"जिसकी लाठी उसकी भैंस" कभी यही भेड़चाल थी, बकरियों ने इसे तोड़ निर्बल का शोषण रोकने का मार्ग प्रशस्त किया। इस पहाड़ी की खड़ी चढ़ाई को चढ़ी। इसके लिए असंख्य 'बलि के बकरे' बने, पर अंत में पहाड़ी पर सुन्दर हरा-भरा घाँस का बिछौना पा ही लिया। जब भेड़ों ने देखा कि इस मार्ग से हो कर आप बुद्धिजीवी दिखने लगेंगे, सब आपका सम्मान करेंगे, कई नर-मादाएं ऐसे सन्मानित भेड़ों के संग जोड़े बनाने आतुर होंगे, चारा भी अधिक मिलेगा, तब सारी भेड़ इसी ओर लपक लीं। अब हर कोई निर्बल को सबल बनाने में जुट गया। निर्बल भेड़ों-बकरियों को लोग चारा अधिक देने लगे, निर्बल की सहायता करने के लिए ही अब प्रतियोगिता होने लगी। कोई किसी निर्बल की मालिश करने लगा तो कोई किसी का पृष्ठभाग चाट कर उसे साफ़ करने लगा। निर्बल पर 'किरपा बरसते' देख कई हट्टे-कट्टे भेड़ों ने स्वयं मरियल होने का दिखावा करना प्रारम्भ कर दिया। कुल मिला कर लाठी और भैंस का अब कोई रिश्ता नाता ही नहीं रहा। उलट अब तो जिसके पास लाठी हो, वही खलनायक! नयी प्रथा शुरू - "लाठी रखना पाप है"। इससे भी एक पग आगे बढ़कर, पहाड़ी के छोर तक पहुँचते हुए भेड़ों ने प्रथा चलाई कि "सींग रखना अपराध है", सबने अपनी सींगें तुड़वा लीं।
अक्टूबर २००७ की दुर्घटना है - विल्डबीस्ट का एक विशाल समूह वार्षिक प्रवास (एनुअल माइग्रेशन) में केन्या की 'मारा' नदी पार करने जा रहे थे। एक विल्डबीस्ट ने एक घातक छोर पर छलांग लगा दी। बाकी के विल्डबीस्ट ने भी ना सोचा ना समझा, बस छलांग लगा दी - वही भेड़चाल! परिणाम स्वरुप अगले दिन १०,००० विल्डबीस्ट के मृतदेह एक किनारे तैरते पाये गए।
छायाचित्र स्रोत १ छायाचित्र स्रोत २ घटना स्रोत
आवश्यक नहीं कि लीक से हट कर कुछ करने वाले सदा सही ही होते हैं। कभी किसी अनुचित निर्णय का बड़ा भारी मूल्य भी चुकाना पड़ जाता है। विवेकशून्य विद्रोह प्रायः घातक होता है। भेड़ ना विवेक समझते हैं, ना विद्रोह—बस पिछलग्गु बन चले चलते हैं।
पहाड़ी के छोर तक पहुँच कर भेड़ों ने अपनी सींगें तुड़वा लीं थीं। इतने में सामने वही भेड़िया प्रकट हुआ जो अब तक घात लगाये बैठा था। अब आगे भेड़िया, पीछे खाई। कई भेड़ें धक्का-मुक्की में खाई में समा गयीं और कई भेड़िये का आहार बन गयीं। इतने में वही विद्रोही बकरियाँ सामने आयीं जिन्होंने अपनी सींगें ना तुड़वा कर भेड़ों से विद्रोह किया था। इन्हीं समाज द्वारा तिरस्कृत-बहिष्कृत बकरी/बकरों ने भेड़िये को खदेड़ा। इस प्रकार पुनः सींगें रखने का प्रचलन हुआ, पुनः लाठी, पुनः भैंस !
पंचतंत्र में पंडित विष्णु शर्मा जी कहते हैं -
एकस्य कर्मं संवीक्ष्य करोत्यन्योsपि गर्हितं।
गतानुगतिको लोको न लोक: पारमार्थिक:।।
भारतीय दर्शन में काल/समय नाक की सीध में नहीं दौड़ा जाता, अपितु चक्र में चलता है—समयचक्र! कभी कुम्हार माटी को रौंदता है, तो कभी माटी कुम्हार को; जो आज नवीन है वह कल पुरातन हो जायेगा, और जो कल पुरातन था वह फिर नए भेस में पुनः नवीन बन हमारे समक्ष मुस्काएगा।
आज समाज पुनः उसी पहाड़ी के छोर पर खड़ा सींगें तुड़वा रहा है। कौन शोषक है, और शोषित है इसकी परिभाषा कब की बदल गयी परन्तु भेड़ें अब भी भेड़चाल में मस्त हैं। परन्तु कब तक? वहाँ क्षितिज पर भेड़िये के जबड़े से लार टपक रही है।
संसार जंगल है। यहाँ गडरिये नहीं होते, यहाँ समय का खूंखार भेड़िया होता है - सदा घात लगा कर ताक में बैठा कि कब इसे किसी मेमने की गर्दन चबाने मिले। चूक अथवा असफलता का अर्थ है इस भेड़िये रुपी काल का ग्रास बन जाना। पाप-पुण्य कुछ नहीं, केवल कर्म और कर्मफल। किसी बकरी ने एक नया मार्ग ढूंढा जहाँ से हो कर नर्म स्वादिष्ट घाँस बहुतायत में खाने मिले, किसी भेड़ ने उसका पीछा किया और तदोपरांत भेड़चाल प्रारम्भ। मज़े की बात ये है कि, भेड़ें सदा से ही बकरियों/ बकरों की बलि भी चढ़ाते आई हैं और इनका पीछा कर नए घाँस के मैदानों तक पहुँचते भी।
"जिसकी लाठी उसकी भैंस" कभी यही भेड़चाल थी, बकरियों ने इसे तोड़ निर्बल का शोषण रोकने का मार्ग प्रशस्त किया। इस पहाड़ी की खड़ी चढ़ाई को चढ़ी। इसके लिए असंख्य 'बलि के बकरे' बने, पर अंत में पहाड़ी पर सुन्दर हरा-भरा घाँस का बिछौना पा ही लिया। जब भेड़ों ने देखा कि इस मार्ग से हो कर आप बुद्धिजीवी दिखने लगेंगे, सब आपका सम्मान करेंगे, कई नर-मादाएं ऐसे सन्मानित भेड़ों के संग जोड़े बनाने आतुर होंगे, चारा भी अधिक मिलेगा, तब सारी भेड़ इसी ओर लपक लीं। अब हर कोई निर्बल को सबल बनाने में जुट गया। निर्बल भेड़ों-बकरियों को लोग चारा अधिक देने लगे, निर्बल की सहायता करने के लिए ही अब प्रतियोगिता होने लगी। कोई किसी निर्बल की मालिश करने लगा तो कोई किसी का पृष्ठभाग चाट कर उसे साफ़ करने लगा। निर्बल पर 'किरपा बरसते' देख कई हट्टे-कट्टे भेड़ों ने स्वयं मरियल होने का दिखावा करना प्रारम्भ कर दिया। कुल मिला कर लाठी और भैंस का अब कोई रिश्ता नाता ही नहीं रहा। उलट अब तो जिसके पास लाठी हो, वही खलनायक! नयी प्रथा शुरू - "लाठी रखना पाप है"। इससे भी एक पग आगे बढ़कर, पहाड़ी के छोर तक पहुँचते हुए भेड़ों ने प्रथा चलाई कि "सींग रखना अपराध है", सबने अपनी सींगें तुड़वा लीं।
अक्टूबर २००७ की दुर्घटना है - विल्डबीस्ट का एक विशाल समूह वार्षिक प्रवास (एनुअल माइग्रेशन) में केन्या की 'मारा' नदी पार करने जा रहे थे। एक विल्डबीस्ट ने एक घातक छोर पर छलांग लगा दी। बाकी के विल्डबीस्ट ने भी ना सोचा ना समझा, बस छलांग लगा दी - वही भेड़चाल! परिणाम स्वरुप अगले दिन १०,००० विल्डबीस्ट के मृतदेह एक किनारे तैरते पाये गए।
छायाचित्र स्रोत १ छायाचित्र स्रोत २ घटना स्रोत
आवश्यक नहीं कि लीक से हट कर कुछ करने वाले सदा सही ही होते हैं। कभी किसी अनुचित निर्णय का बड़ा भारी मूल्य भी चुकाना पड़ जाता है। विवेकशून्य विद्रोह प्रायः घातक होता है। भेड़ ना विवेक समझते हैं, ना विद्रोह—बस पिछलग्गु बन चले चलते हैं।
पहाड़ी के छोर तक पहुँच कर भेड़ों ने अपनी सींगें तुड़वा लीं थीं। इतने में सामने वही भेड़िया प्रकट हुआ जो अब तक घात लगाये बैठा था। अब आगे भेड़िया, पीछे खाई। कई भेड़ें धक्का-मुक्की में खाई में समा गयीं और कई भेड़िये का आहार बन गयीं। इतने में वही विद्रोही बकरियाँ सामने आयीं जिन्होंने अपनी सींगें ना तुड़वा कर भेड़ों से विद्रोह किया था। इन्हीं समाज द्वारा तिरस्कृत-बहिष्कृत बकरी/बकरों ने भेड़िये को खदेड़ा। इस प्रकार पुनः सींगें रखने का प्रचलन हुआ, पुनः लाठी, पुनः भैंस !
पंचतंत्र में पंडित विष्णु शर्मा जी कहते हैं -
एकस्य कर्मं संवीक्ष्य करोत्यन्योsपि गर्हितं।
गतानुगतिको लोको न लोक: पारमार्थिक:।।
एक के कर्म को देखकर अन्य भी उसका अनुसरण करते हैं। लोग सबके द्वारा प्रयुक्त मार्ग पर ही चलते हैं, कोई परम अर्थ को जानने की चेष्टा नहीं करता।
भारतीय दर्शन में काल/समय नाक की सीध में नहीं दौड़ा जाता, अपितु चक्र में चलता है—समयचक्र! कभी कुम्हार माटी को रौंदता है, तो कभी माटी कुम्हार को; जो आज नवीन है वह कल पुरातन हो जायेगा, और जो कल पुरातन था वह फिर नए भेस में पुनः नवीन बन हमारे समक्ष मुस्काएगा।
आज समाज पुनः उसी पहाड़ी के छोर पर खड़ा सींगें तुड़वा रहा है। कौन शोषक है, और शोषित है इसकी परिभाषा कब की बदल गयी परन्तु भेड़ें अब भी भेड़चाल में मस्त हैं। परन्तु कब तक? वहाँ क्षितिज पर भेड़िये के जबड़े से लार टपक रही है।
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