समय को सारे तथाकथित 'मॉडर्न' लोग लीनियर चीज़ समझते हैं, जबकि प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ 'समय-चक्र' की मान्यता रही है। मतलब समय नाक की सीध में नहीं, अपितु चक्र में चलता है - रात के बाद सवेरा और फिर दिन के बाद रात्रि। वैसे ही चार युगों का चक्र; हमारे लिए समय नाक की सीध में जा कर 'क़यामत' या 'जजमेंट डे' की खाई में छलांग नहीं लगा बैठता, वह तो मस्ती में चक्कर काटता है।
अब चक्र की विशेषता यह है कि इसमें आप किसी भी बिंदु से प्रारम्भ कर सकते हैं, कुछ भी सही-गलत नहीं, कोई रोक-टोक नहीं। केवल इतना है कि जो बोया है, उसकी ही फसल काटोगे। इसे ही पाश्चात्य सभ्यता ने 'कर्मा' की फिलोसोफी के रूप में अपनाया है। अब प्रारम्भ जहाँ कहीं से भी करना चाहो, जैसे करना चाहो, सब आप की अपनी मर्जी।
आज ३१ दिसम्बर की सर्दी से कुड़कुड़ाती मध्यरात्रि नाच-गाने और मदिरापान के बीच नव वर्ष का स्वागत किया जायेगा। मुझे इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लगता। पर हाँ, मैं तो अपना नया वर्ष वसंत के आगमन पर मनाऊंगा, जब धरती हरियाली से चहुँओर सजी होगी, जब प्रकृति अपने चरम सौंदर्य पर होगी और वातावरण में प्रसन्नता और ऊर्जा बह रहे होंगे। घर सजा कर भगवान जी के सामने घी का दीपक जलाउंगा, गऊ को रोटी खिलाऊंगा और नए साल का स्वागत करूँगा।
पर क्या ये सब लेक्चर से मैं किसी को आज की रात मौज-मस्ती करने से हतोत्साहित कर रहा हूँ? ना ना ! खुशियाँ तो जीवन में जब मिलें उन्हें गले लगा लेना चाहिए। आज की रात भी मौज-मस्ती भरी हो तो क्या बात ! मैं स्वयं बाहर तो नहीं जा पाउँगा, पर घर पर ही परिवार के संग 'थर्टी-फर्स्ट' मनाऊंगा। पर १ जनवरी को एक 'चेक पॉइंट' समझूंगा, प्रारम्भ नहीं। "Well begun is half done" ;)
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