कौन हैं ये लोग जो सांत्वना देने में रुदालियों को भी पीछे छोड़ देते हैं

मित्रों और सहेलियों, आज की कहानी तनिक  हट कर है। इस कहानी में आपको किसी बॉलीवुड फिल्म का सारा मसाला मिलेगा - ट्रेजेडी, कॉमेडी, एक्शन, इमोशन,सेक्स…सबकुछ! पर इस कारण ये ना समझ लीजियेगा कि ये कहानी कपोल-काल्पनिक है। वो कहते हैं ना कि प्रायः सत्य कल्पना से भी विचित्र होता है; ये कहानी इस बात की सत्यता को प्रमाणित करती है। 

बात पड़ोस के दो मुहल्लों की है - एक बड़ा, एक छोटा। दोनों मुहल्लों में प्रायः झगड़े होते रहते थे। कई बार बात मार-पीट की भी आई, लोग लहू लुहान भी हुए और कुछ ने प्राण भी गंवाए। समस्या वही जो महाभारत काल में भी थी - प्रॉपर्टी और झूठा दम्भ! "मेरा मोहल्ला तुमसे श्रेष्ठ है"तथा और अधिक प्रॉपर्टी की हवस में अंधे हो कर इस मोहल्ले के बुज़ुर्ग ही वहाँ के लौंडों को भड़काते रहे। आमने-सामने की हाथापाई में तो छोटे मोहल्ले वाले लोहा ले नहीं पा रहे थे, कई बार मुंहकी भी खाई थी; इसलिए अब इन्होंने नई जुगत लगाई। एक सँपेरे को अपने यहाँ बुला कर उसे साँप पालने में सहायता करने लगे। अनुबंध/अग्रीमेंट ये कर लिया कि समय-समय पर सपेरा अपने साँप बड़े मोहल्ले में भेजता रहेगा। इस प्रकार जब-तब बड़े मोहल्ले वाले क्षुब्ध(perturbed) होते रहे। कई बार सर्पदंश(snake bite) से लोगों ने प्राण भी गँवाए; और ऐसे अवसर छोटे मोहल्ले वालों के लिए उत्सव-समान होते थे। आज इनमें से एक साँप ने इनके ही एक बच्चे को डस लिया। बड़ों के पापों का फल बच्चे ने भुगता। बच्चे के लिए तो दोनों मुहल्लों में सांत्वना थी, बस इस सांत्वना का प्राकट्य भिन्न था और कई बार इतना विचित्र कि कोई हँसे या या दुखी होए ये समझ पाना कठिन हो रहा था। शोक प्रकट करना सही है, पर परिप्रेक्ष्य तो ना भूलिए!

बच्चे किसी के भी हों, भगवान का रूप होते हैं। उनका मन कोमल-निष्पाप होता है। फिर बड़ों की करतूतों का बच्चों से क्या लेना-देना।  बड़े मोहल्ले के कुछ लोग इसी भाव से शोकसभा में पहुँचे। कुछ लोगों ने जहाँ भीगे नेत्रों से उनके आने का स्वागत किया, तो कुछ ने उसे लाल आँखों से घूरा भी। कुछ बड़े मोहल्ले वाले 'जैसी करनी-वैसी भरनी' वाला भाव लिए खड़े थे और ये स्वाभाविक भी था, परन्तु कई बड़े मोहल्ले वाले अजीब सा रुदाली-विलाप करने लगे। 

एक ताऊ छाती कूट-कूट कर रो रहे थे,
"हाय! इतनी छोटी आयु में क्यों ले गए इसे… इसके बदले मुझे ही ले जाते"
 ताऊ भूल रहे थे कि इस मोहल्ले वालों ने अपने मोहल्ले के बच्चों के बाप छीन लिए थे। काश भगवन ताऊ की प्रार्थना सुन ही लेते। पर ये तो केवल प्रारम्भ था। एक टिटपुंजिया पत्रकार टाइप चाची ने एक पग आगे बढ़कर अपनी चूड़ियाँ तोड़ते हुए चिंघाड़ा,
"हाय! इस मोहल्ले के लोग ही सदा शिकार क्यों होते हैं! इनकी चीख कोई तो सुन लो!"
वैसे इन चाची जी को आजकल कोई गंभीरता से नहीं लेता। सुना है कि ये कई बार चोरी-छुपे इस मोहल्ले में रात को देखी गयी हैं। चाचा जी इन्हें रात को यहाँ छोड़ जाते हैं और सवेरे यहाँ से ले आते हैं। अब जितनी मुँह, उतनी बातें। हमें क्या! 
अब चाची का साथ देती हुई एक कन्या भी रो पड़ी, "यह त्रासदी दोनों मुहल्लों के लिए दुःख का विषय है", यहाँ तक तो सभी सहमत थे इस कन्या से, पर आगे ये फूंटी,"इस पर दोनों मुहल्लों को लज्जा आनी चाहिए!"…ये कुछ अधिक नहीं बोल गयी तुम, बालिके? नहीं मतलब, साँप पाला इन्होने, फिर लज्जा हमारे मोहल्ले को क्यों आनी चाहिए? कहीं चाची से ट्रेनिंग तो नहीं ले रही हो?
लोग इस विचार में ही थे कि एक मरियल लौंडे ने सब को ध्यान दिलाया कि कैसे कुछ बड़े मोहल्ले वाले लोग अपने यहाँ छोटे मोहल्ले के प्रति सांत्वना देख कर चिढ रहे हैं। पर ये महाशय ये देखना भूल गए कि इसका कारण इस मोहल्ले वालों के कुकृत्य ही थे। अपनों को खोने का दुःख किसे नहीं होता? मंदिर-बाजार हर जगह तो इनके साँप बड़े मोहल्ले में लोगों को डसते रहे हैं। फिर भी बड़े मोहल्ले वाले केवल चिढ ही रहे हैं, साँप तो नहीं भेज रहे यहाँ!
बस इस बात ने जैसे अब सांत्वना की दिशा बदल कर प्रवचन की ओर कर दी। एक देवी जी ने यह अवसर ना गँवाते हुए ज्ञान की गंगा के दो बूँद छिड़के,"इस मोहल्ले की त्रुटियों पर ऊँगली तानना छोड़ कर अब हमें ये सीख लेनी चाहिए कि यदि पागलों पर परिवार का उत्तरदायित्व सौंप दिया जाए तो क्या होता है।" काश इन्हें ये याद रहता की बड़े मोहल्ले के वयो-वृद्ध सदा से यही सीख देते आये हैं, पर इन्होंने कतई उनकी ना सुनी,  फलस्वरूप आज ये दिन देखने पड़ रहे हैं!
अब जैसे पूरी दिशा ही बदल चुकी थी। अपने ही मोहल्ले के लोग अब अपने ही लोगों के बारे में प्रवचन नहीं चेतावनी देने लगे थे ! पता नहीं इस लौंडे को क्या सूझा और यह भौंक पड़ा,"यह दुर्घटना हमें बताती है कि मतान्ध लोग किस प्रकार व्यव्हार करते हैं। हमारे मोहल्ले के चौकीदार भले ही आज ऐसे नहीं हैं, पर अवसर मिलते ही अवश्य साँप पाल लेंगे।"… मनुष्य संसार के विषय में जो सोचता है वह 'कहीं ना कहीं' उसके अपने मन का प्रतिबिम्ब होता है। अब इन महाशय की बातें सुन कर तो इनकी झोली में साँप होने की आशंका हो रही है है। रही बात चौकीदार ताऊ की, तो वे हर उस बच्चे को उठा कर मरहम-पट्टी करते हैं जो खेलते हुए अपने घुटने छिलवा बैठता है, वो बच्चों को पंचतंत्र की कहानियाँ सुनाते हैं और जब-तब मोहल्ले में घुसने वाले लफंगों की खटिया खड़ी की है उन्होंने। अब मतलब, चूंकि पड़ोस के लोगों ने चूतियाप काटी है, हम अपने चौकीदार ताऊ पर सोंटे बरसा दें? धत्त बुड़बक! लॉजिक को बेच खाए हो?
मानो जैसे प्रतियोगिता ही चल पड़ी थी कि कौन बड़े मोहल्ले वालों को गालियां मरेगा। जब सब बोल ही रहे थे, एक अत्यंत अधेड़ आंटी जी, जिनका नाम 'बच्ची किरकिरी' है (मतलब जवानी हाथ से फिसल गयी तो क्या, नाम ही बच्ची रख कर प्रसन्न हो लो!) खड़ी हुईं और घुमा के बल्ला सीधा गेंद बॉउंड्री के पार करने वाली बात बक मारी - "इस सर्पदंश की घटना को ले कर छोटे मोहल्ले वालों को टारगेट करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस बात की चिंता करें कि कहीं बड़े मोहल्ले वाले अब सपेरे ना बन जाएं।" - मतलब इस बात से कोई लेना-देना ही नहीं कौन मरा, किसने मारा और क्यों मारा… बस उठा के धनुष अंधेरे में अंधाधुंध तीर बरसा दिए! लॉजिक गया गाँ.… मेरा मतलब… तेल लेने! अब समझे इनके नाम में 'किरकिरी' कैसे जुड़ा ?
अब इन सब की महान ज्ञानभरी चेतावनियाँ सुन कर एक छोटे मोहल्ले वाले को भान हुआ कि सारे बड़े मोहल्ले वालों ने तो पूरी लाइमलाइट ही हथिया ली है! कुछ तो करना होगा! दुःख अपने मोहल्ले का और लाइमलाइट ये लोग ले जाएँ! कदापि नहीं! और इस शौच.… आरर मेरा मतलब सोच के साथ 'लाल टोपी' महाराज गरज उठे,"सालों, बड़े मोहल्ले वालों! ये साँप तुम्हारे ही भेजे हुए हैं। हम छोटे मोहल्ले वाले एकजुट हो कर तुम्हारी 'जान' फाड़ देंगे।" - बस फिर क्या था, छोटे मोहल्ले में 'लाल टोपी' का जयघोष हो उठा! टैलेंटेड हैं 'लाल टोपी' महाराज! बहुत्तई टैलेंटेड!

कुछ बड़े मोहल्ले के लोग तो गए थे अबोध-निरपराध दिवंगत बालकों को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने, पर जहाँ कुछ छोटे मोहल्ले वालों ने स्वागत किया वहीँ अपने ही मोहल्ले वालों का ये आचरण देख कर मन में कुछ पंक्तियाँ कौंधीं -
अचम्भा नहीं होता अब मुझे 
जब कुछ अपनों की ही बातों से लगता है कि 
दूजों की गलती में भी हमारा ही हाथ है।
क्या करें यारों, हमने पाले आस्तीन के साँप हैं।


साथ ही याद हो आई बड़े मोहल्ले के उस वयोवृद्ध दद्दू की सीख भरी पंक्तियाँ जो इस सर्पदंश ने सत्य सिद्ध कर दिया था - 
"चिंगारी का खेल बुरा होता है,
औरों के घर आग लगाने का जो सपना
वह अपने ही घर मे सदा खरा होता है,
अपने ही हाथो तुम अपनी कब्र न खोदो,
अपने पैरों आप कुलाहड़ी नहीं चलाओ,
ओ नादान पड़ोसी अपनी आंखे खोलो,
आज़ादी अनमोल, ना इसका मोल लगाओ"
अब छोटे मोहल्ले वालों का तो पता नहीं, पर इतना पता है कि मोहल्ले के ये बुद्धिजीवियों से सम्हल कर रहना अत्यावश्यक है। जिस घने वृक्ष को हाथी भी नहीं डिगा पाते, उसे भी दीमक नष्ट कर सकते हैं। यहाँ हाथी नहीं, कुत्ते हैं… और दीमक !

जिसको बात समझी वो ज्ञानी… आज के लिए केवल इतनी ही कहानी।

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मित्रों आज की कहानी तनिक कठिन थी। बहुत पहले एक विद्वान पुरुष से बतियाते हुए सुना था कि जब दुःख एवं त्रासदी एक सीमा रेखा पार कर जाते हैं तो उस बंजर विषव्याप्त धरा से भी व्यंग के कोपल फूंट पड़ते हैं। भयंकर ह्रदय विदारक रुदन से भी अधिक वीभत्स कालिमा लिए हुए यदि कुछ है तो वह है दुःख से बेसुध-व्यग्र(bewildered) अट्टहास ! इस रुदन और अट्टहास के बीच एक मौन के मरुस्थल में उपजी एक कहानी आज बाँचने का क्षुद्र प्रयत्न किया है मैंने। पता नहीं कितना सफल हो पाया हूँ। त्रुटि हो तो एक दीन लेखक समझ कर क्षमा कर दीजियेगा। 
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3 comments:

  1. To be honest . content of this post is well researched and accurate ,
    but presentation could have been a lot better .
    my intend is not to criticise but to give an honest feedback . No offence meant ..

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  2. Wah bhai kya likhte hai.....aapka profile ka link de

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    1. Dhanyawaad. aap humse yahan sampark kar sakte hain, bandhu :)
      https://www.facebook.com/theghantaa

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