सनी लियोनि, मंदिर की नग्न मूर्तियाँ और समाज की समझ

कैंटीन में कुछ कूल-ड्यूड्स का गैंग बैठा बकैती काट रहा था। एक ने बड़े ताव के साथ शेर मारा,"सदियाँ गुज़र गईं, रहा है दुश्मन दौर-ए-जहाँ हमारा..." और आगे बखान करने लगा की किस प्रकार ये सारे 'संस्कृति के रक्षक' कैसे जाहिल है और निरर्थक कामों में अपना समय व्यर्थ करते हैं। व्यर्थ में ही लोग हर बात में चिल्ल-पों मचाये रहते है। सब चलता है बॉस, चिल!

पास ही बैठे, चाय की चुस्कियां लेता मैं मन ही मन मुस्कुरा उठा। कितने ज्ञानी हैं ये छोरे! कितनी कम आयु में कितना गूढ़ ज्ञान! सही तो कहा इन छोरों ने, ये भी कोई तुक हुआ कि जब देखो तब ये संस्कृति के रक्षक रास्तों पर निकल आते हैं और फिल्मों में अश्लीलता पर बवाल मचाते हैं। अरे देख लो पुराने मंदिरों को जहाँ हर मूर्ती नग्न होती है। फिर इन्हें सनी लियोनि से इतना कष्ट क्यों? यदि आप स्वयं पर नियंत्रण रख सकते हैं तो मदिरा पर प्रतिबन्ध क्यों लगाया जाये? किसी भी चीज़ पर प्रतिबन्ध लगाया ही क्यों जाये? लोग समझदार हैं। उन्हें निर्णय करने दीजिये ना कि उनके लिए क्या लाभ है और क्या हानि।

छोरों ने बड़े तार्किक प्रश्न उठाये थे। मेरा मन चाय की चुस्कियाँ लेता एक प्रश्न से दुसरे पर छलांग लगाने लगा।...

फिल्मों में अश्लीलता...सनि लियोनि...मंदिरों में देवताओं की नग्न मूर्तियाँ?
ये मूर्तियाँ तो उस युग की हैं ना जब मनुष्य कपडे केवल आवश्यकतानुसार पहनता था? साज-सज्जा के लिए तो आभूषण हुआ करते थे। और ये हर कोई करता था - क्या नारी, क्या पुरुष...क्या माता,क्या पुत्री, क्या प्रेयसी और क्या पत्नी। फिर उस समय मैनीक्योर-पेडीक्योर भी नहीं थे, ना ही महिलाएं 'वैक्सिंग' करवाती थीं। हर मूर्ती का अवलोकन करने पर यह भी पता चलता है की नर-नारी के शारीर पूर्णतया प्राकृतिक थे...कोई सिक्स-पैक-एब्स नहीं, कोई पपीते सामान बाइसेप्स नहीं और ना ही सिलिकॉन भरे वक्ष! हर मूर्ती में हल्का सा पेट निकला हुआ। तो क्या इन सब न को भी नहीं अपनाना चाहिए? क्या गुलाब से उसके कंटक पृथक कर केवल पुष्प ही उगाये जा सकते हैं? क्या कमल को बिन कीचड खिलाया जा सकता है?

परन्तु सनी लियोनि ने भी तो वही किया है जो खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियाँ करती दिखती हैं। नहीं? पर क्या ऐसा नहीं कि जहाँ ये मूर्तियाँ सम्भोग क्रिया को योग सामान दर्शाती हैं तथा इस क्रिया को पवित्रता के चन्दन का टीका लगाती हैं, वहीं सनी लियोनि तथा उनके जैसी अन्य मादक बालाएं इस क्रिया को केवल मनोरंजन के साधन के रंग में रंगती हैं। जहाँ ये मूर्तियाँ सेक्स को 'सम-भोग' बताती हैं तथा पुरुष तथा नारी शरीर को पूज्य दर्शाती हैं, वहीं ये 'आइटम-गर्ल्स' तथा 'पोर्न-स्टार्स' नारी शारीर को एक भोग की वस्तु के रूप में दर्शाती हैं। क्या ऐसे में नारीवाद की तूती बजाने वालों को भी इन जाहिल-गंवार 'संस्कृति के रक्षक' पाले में नहीं जुड़ जाना चाहिए? पर कदाचित मैं अज्ञानी किसी कुतर्क को पकड़ बैठा हूँ।

ध्यान भंग हुआ तो मैं अपनी आधी चाय सुड़क चूका था तथा आधी बची हुई पर्ण-घुट्टी अर्थात चाय ठंडी हो रही थी, वहीं बगल के क्रन्तिकारी विचारों वाले कूल ड्यूड्स अब नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण की बातें पेल रहे थे। ऐसी ज्ञान की गंगा बहते देख मुझे विश्वास हो चुका था कि इस देश का भविष्य उज्वल है। अब मैं एक और चाय की चुस्की ले कर पुनः अपने विचारों की लौह-पथ-गामिनी अर्थात रेलगाड़ी में सवार हो गया...

हाँ तो क्या था दूसरा प्रश्न? मदिरा पान पर प्रतिबन्ध क्यों? उस कूल-ड्यूड ने बात तो एकदम राईट एंड ब्राइट कही थी - यदि आप स्वयं पर नियंत्रण रख पाओ तो मदिरापान पर प्रतिबन्ध क्यों हो। प्रतिबन्ध की छोडिये, बुराई क्या है शराब में? सहसा मन में बलराज सहनी जी गाते हुए प्रकट हुए - "हम ने पी शराब, तुम ने क्या पिया, आदमी का खून?"

'नियंत्रण' - मेरा मन इस शब्द की परिक्रमा करने लगा। मनुष्य मदिरापान क्यों करता है? स्वयं पर नियंत्रण खोने के लिए ना? यदि नियंत्रण है तो नशा कैसा? और यदि नशा ही नहीं तो मदिरापान क्यों? यदि स्वाद के लिए पीना है तो लस्सी का स्वाद इस कडवे द्रव्य से स्वादिष्ट है, नहीं? कदाचित मैं अज्ञानी, इस भेद को ना समझ पाउँगा। परन्तु क्या ये सत्य नहीं कि गुजरात जैसे राज्य में दारु पर प्रतिबन्ध केवल नारी संगठनों के अथक प्रयासों का नतीजा ही है? क्या यह भी सत्य नहीं कि निर्भया का बलात्कार करने वाले भी नशे में धुत्त थे और ये कि आयेदिन किसी धनाढ्य परिवार की संतान दारू और ड्रग्स के नशे में डूबे अपनी गाडी के नीचे फुटपाथ पर सोये लोगों को कुचल देते हैं?

मैं समझ गया कि ये सब गूढ़ ज्ञान की बातें हैं जो मुझ जैसे मंद मति को ना समझ आने वाली। सही कहा था उस कूल ड्यूड ने कि लोगों को समझ है कि उनके लिए क्या लाभकारी है... मैंने विचारों की इस रेलगाड़ी से उतरना ही श्रेयस्कर समझा। बची हुई चाय को एक घूँट में समाप्त किया और अपने कम पर निकलने को खड़ा हुआ...

बाहर निकलते हुए देखा कि अब वह कूल ड्यूड अपनी फटफटी पर सवार था। कूल ड्यूड ने हाथ में धरे कोला के कैन को उछाल कर डस्ट बिन के कनस्तर की ओर फेंका और फटफटी पर भुर्र हो गया। कोला का कैन कचरा-पेटी से मीटर भर दूर गिरा हुआ था। कचरे से घिरी कचरा-पेटी स्वयं रिक्त बैठी मानो हमारी समझ और हमारे ज्ञान को प्रमाणित कर रही थी।

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