"चोली के पीछे क्या है, चोली के पीछे?
वक्षों को उछाल-उछाल कर माधुरी दीक्षित तथा अन्य बालाओं के इस मादक नृत्य पर फिल्माए गए इस गीत को तो हर कोई पहचानता ही है, बड़ा लोकप्रिय हुआ था यह गीत अपने समय में...आज भी है। पर यह केवल एक गीत ना रह कर भारतीय समाज के लिए एक यक्ष प्रश्न बन गया।
यद्यपि इस प्रश्न को सैकडों फूहड़ लौंडों ने अपने भद्दे लहजे में लड़कियों पर फेंका है (जी हाँ 'फेंका', अम्ल/acid की भाँती), और असंख्य माताएं - बहनें इस भद्दे प्रश्न से परेशान- लज्जित- क्रोधित हुई हैं … परन्तु इसका उपयुक्त उत्तर मुझे केवल एक धाडसी लेखक से सुनने मिला।
"जब किसी रास्ते पर खड़ी prostitute को छेड़ते हुए कोई ये शब्द कहता है तो उसके मन में क्या बीतती है, तथा वह कैसे उत्तर देती है, इसपर ये पंक्तियाँ लिखी हैं मैंने -
चोली के पीछे काय आहे, चोली के पीछे काय आहे?
अरे भड़व्या, चोली के पीछे तुझी माय आहे"
यूं तो मुझे विश्वास है कि आप सभी इन मराठी-हिंदी मिश्रित शब्दों का अर्थ समझ ही गए होंगे, परन्तु जिनको ना समझा हो उनके लिए : काय = क्या, आहे = है, माय = माँ, भड़व्या = भड़वे ।
ये पंक्तियाँ हैं मराठी साहित्य जगत के असंख्य मशाल धारकों में से एक 'पद्म भूषण' श्री मंगेश पाडगाओंकर की। जहाँ खोखले आदर्शवाद की तूती बजाने वाले बोलीवुड ने समाज को एक भद्दा प्रश्न परोसा, वहीँ एक लेखनी के धनी ने एक झन्नाटेदार उत्तर दिया … आज से कई वर्ष पूर्व इन्हें जब कोई बड़े सम्मान से पुरस्कृत किया गया था, तब दूरदर्शन पर इनका साक्षात्कार देखा था, तभी इनकी कही हुई ये पंक्तियाँ मन में घर कर गयीं। यह है एक सशक्त साहित्यिक अभिव्यक्ति का प्रभाव!
अब समझे, कि समाज के लिए स्वस्थ्य साहित्य क्यों आवश्यक है ?
NB : हम चेतन भगत, आमिष त्रिपाठी और शोभा डे जैसे चवन्नीछाप लेखकों की कलम-घिसाइ को कतई साहित्य नहीं मानते, 'स्वस्थ्य' साहित्य तो कदापि नहीं !
वैसे इन लेखक महोदय ने बड़े ही सभ्यातापूर्वक ढंग से उत्तर दिया। हम तो पहले ऐसे उजड्ड लौंडों को चोली पहिनाएं, 'आरती' उतारें और तत्पश्चात उनसे यही यक्षप्रश्न करें... कि हाँ बे, अब बताओ, क्या पूछ रहे थे तुम? चोली के पीछे क्या है? मिला उत्तर के अभी और उतारें तुम्हारी आरती? पलें डंडा?
चलते चलते एक और 'बोलीवुडिया' यक्ष प्रश्न पढ़ते जाइये। क्या इसका उत्तर है आपके पास? : "आती क्या खंडाला?
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