भारतवासियों ने अपने इतिहास से कभी कोई सीख नहीं ली। नतीजा ये रहा कि आक्रमणकारी सदैव अलग अलग बंटे हुए भारतीयों पर राज करते रहे। कुछ क्षणों के लिए लोकसभा चुनावों को देख कर लगा कि कदाचित भारतीयों ने कोई सबक लिया...परन्तु नहीं! ढांक के तीन पात!
उत्तर प्रदेश में ये लग रहा था कि मुसलमानों की भी बहु-बेटियां होती हैं, वो भी २४ घंटे बिजली चाहते होंगे। इस धर्म-जाती के जंजाल से कदाचित लोग उकता गए होंगे। कदाचित अब हिन्दू-मुसलमान एक हो कर बसपा को उखाड़ फेकेंगे...पर मैं अपने चूतियापे...जी हाँ, चूतियापे पर शर्मिंदा हुआ। कदाचित लोगों को मुफ्त के लैपटॉप अधिक प्रिय लगे। परन्तु मैं ये नहीं समझ पाया कि जब बिजली ही नहीं होगी तो लैपटॉप चलाएंगे कैसे? मैं अज्ञानी, कदाचित इस गूढ़ रहस्य को कभी ना समझ पाऊं।
अब महाराष्ट्र की बारी आई तो चुनावों के पहले ही एक नहीं दोनों गठबन्धनों में तलाक हो गया। स्वयं को हिन्दुओं के सरपरस्त बताने वाले भी पता नहीं क्यों अड़ियल बने रहे। और सेक्युलरता का झंडा लहराने वाले भी अलग-अलग राह पकड़ लिए। अब होगा वही, सब अलग अलग मोर्चा सम्हालेंगे, पर घंटा ना कुछ उखाड़ पाएंगे। तत्पश्चात चुनावों के बाद फिर जोड़-तोड़!
अबे अभागे हिन्दुओं, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता। कभी राज ठाकरे ने वोट कटवाए थे, अब तो उद्धव जी भी उद्धार करने निकल पड़े! इन दो पार्टियों को तो साथ नहीं रहना होता, और आरएसएस बात करती है अखंड हिन्दू राष्ट्र की! क्यों भईया, दिग्गी और उस पाकिस्तानी बिलावल से प्रतिस्पर्धा में उतरने का इरादा है क्या? वहाँ वैसे ही कांग्रेस ने मराठा कार्ड खेल रखा है।
ऐसी स्थिति में मुझ जैसा अज्ञानी करे तो क्या करे? उधर दूसरी ओर सेकुलरों की भी यही दुविधा होगी। अबे, माथा पीट कर बैठो बे! पता नहीं जनता दो-दो तलक का आघात कैसे झेलेगी।
च्या माय ला! जेव्हा आपल्या लोकान्नीच आपल्याला बेसहारा करण्याचे ठरविले आहे, तेव्हा दुसर्यांना काय बोलावे? साम्भाळ रे देवा!
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