उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के आँगन में नाचते गड़े मुर्दों की कहानी

श्रृंखला में इस आलेख के पूर्व अंक :
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२०१५ के गणतंत्र दिवस पर प्रारम्भ हुए विवाद पर श्रृंखला के पिछले अंक में मेरा प्रयत्न रहा कि सिद्ध कर पाऊं कि उपराष्ट्रपति जी को उनके धर्म के कारण लक्ष्य नहीं बनाया गया। साथ ही "दोषी कौन?" इस प्रश्न की भी समीक्षा की गयी… परन्तु पूरी नहीं। श्रृंखला के इस अंक में इसी प्रश्न के उत्तर तक पहुँचने का प्रयत्न किया जायेगा। प्रस्तुत है, सीधी बात।

जहाँ तक मुझे याद आता है, दादा जी के पीढ़ी के पुरुष बड़े चाव से सफ़ेद कपडे पहना करते थे। सलीके से कंघी कर मांग काढ़े हुए बाल और श्वेत कुरता-पायजामा - अपने नाना जी और दादा जी, दोनों को ही इस भेष में देखा है मैंने। पर इस रंग की पोशाख पहनने में कम उठा-पटक नहीं करनी पड़ती थी। दिन में दो जोड़ी तो बदलने ही पड़ते थे, क्योंकि तनिक धूल लगी और कुरता मैला सा दिखने लगता था। तनिक दाग लगा, कि कुरता केवल घर में पहनने वाले कपड़ों की श्रेणी में आ जाया करता था। बचपन में मैं भी बड़ों की देखा-सीखी सफ़ेद कपडे पहनने का हठ किया करता था, पर अम्मा कम ही पहनने दिया करती थीं, कारण समझना आसान है। जैसे बड़ा हुआ, मुझे गहरे रंगों, विशेषकर काले या मटमैले रंगों के कपडे भाने लगे। कारण ये कि इनमें चाहे जो धूल-मिटटी उड़ा कर खेल लो... दाग कम ही दिखते थे। कम ही लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया होगा, परन्तु 'इमेज' अर्थात छवि और कपड़ों की इस कहानी में बहुत कुछ समझने योग्य है। यदि आप ने अपनी छवि पहले ही ऐय्याश-बिगड़ैल प्रकार के व्यक्ति की बना रखी है, तब आप चाहे जो कर लें, लोग उतना 'लोड' नहीं लेंगे, क्योंकि ये आप से अपेक्षित होगा। नंगे से नंगई की ही आशा की जा सकती है, इसीलिए 'नंगे से खुदा हारा' की कहावत प्रचलित हुई, क्योंकि जो पहले ही नग्न है, उसपर कीचड़ उछाल कर कोई घंटा कुछ बिगाड़ लेगा! अब यो यो हनी सिंह को ही देख लीजिये, "चार बोतल वोडका" और "छोटी ड्रेस में बॉम्ब लगदी मैनु" जैसे गाने, परन्तु किसी को कोई समस्या नहीं उस से। पर जब आप अपनी छवि किसी आदर्शवादी की बनाना प्रारम्भ करते हैं, या बना चुके होते हैं तब आपके हर क्रिया-कलाप को लोग सूक्ष्मदर्शक यंत्र अर्थात माइक्रोस्कोप पर रख कर देखेंगे। यही बात उपराष्ट्रपति महोदय श्री हामिद अंसारी पर भी लागू होती है। 


हामिद अंसारी जी ने अपनी छवि एक उजले व्यक्तित्व के धनि की बना रखी है, ना केवल यह, साथ में इस घटना से वे नियमों का कड़ाई से पालन करने वाले भी सिद्ध हुए। तनिक सस्ती भाषा में इसे 'लकीर का फ़कीर' भी कहा जा सकता है। परन्तु केवल 'सस्ती भाषा' में। उनका पद एवं उनकी छवि उन्हें रत्ती भर भी 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' के प्रयोग से रोकती है। और यहीं एक गड़ा मुर्दा उखड़ जाता है। अधिक समय नहीं बीता है इस बात को, पिछले वर्ष की ही बात है जब उप राष्ट्रपति महोदय ने दशहरे पर आरती पर अपने धार्मिक कारणों से ना कर दिया था। इस बात पर सारे समाचार चैनलों ने चुप्पी साध ली थी। सोशल मीडिया में थोड़ा हल्ला मचा तो कई सेक्युलर बुद्धिजीवी उनके बचाव में प्रश्न उठाते दिखे कि इस देश में हर किसी को अपने धर्म के अनुसार चलने का अधिकार है। सही बात है। पर फिर यही बात बहुसंख्यक हिन्दुओं पर क्यों लागू नहीं होती? अब भी नहीं समझे? तनिक ज़ोर डालिये कि किस प्रकार मोदी जी के टोपी ना पहने जाने पर सब के सब शिकारी कुत्तों की भांति उनपर टूट पड़े थे, क्या मीडिया, क्या राजनेता और क्या सेक्युलर बुद्धिजीवी। कई सालों यही चलता रहा। फिर प्रधानमंत्री बनने के पश्चात जब मोदी जी बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिए पहुंचे तो सागरिका घोष नाम की महान सेक्युलर पत्रकार ने उन्हें ज्ञानवापी मस्जिद जाने की सलाह दे डाली। ये वही मस्जिद है जो आज भी आधे मंदिर के मलबे पर खड़ी है। जैसे हिन्दुओं को चिढ़ाती हो कि देखो... खैर छोड़िये, यहाँ मुद्दे से भटकाव हो जायेगा। जब आज़म खान ने अधिक बच्चों की बात की तब ठीक था, केरल में चर्चों ने बड़े परिवारों (अधिक बच्चे वाले परिवारों) को बढ़ावा देने के लिए उन्हें पुरस्कृत किया तब भी कोई न्यूज़ नहीं बनी, परन्तु साक्षी महाराज ने कहा कि एक बच्चा देश की रक्षा के लिए सेना में भर्ती करो, एक को धर्म की सेवा में लगाओ और इस प्रकार हर हिन्दू जोड़ा ४ बच्चे पैदा करे तो इसपर उहा-पोह मच गया! कब तक लोग सेकुलरिज्म के इस दोग़ले चरित्र को झेलेंगे?

हामिद अंसारी जी ने आरती के लिए मना कर के ठीक किया, पर भारत के उपराष्ट्रपति ने नहीं। इनके अतीत के इसी गड़े मुर्दे की परछाँई गणतंत्र दिवस के अटपटे दृश्य पर लोगों के घाव हरे कर गई। इसे ही हिंदी में कर्म-फल तथा आंग्ल भाषा में 'कर्मा' कहा जाता है, - "व्हाट गोज़ अराउंड, कम्स अराउंड"! भारत के उपराष्ट्रपति से आरती को सम्मान देना अनिवार्य नहीं था, परन्तु अपेक्षित अवश्य था। तब भी केवल अनिवार्य का सहारा ले कर निकल लिए। मैं फिर कहूँगा, हामिद अंसारी जी को उनके धर्म के कारण लक्ष्य नहीं बनाया गया। यदि भारत का चरित्र ऐसा होता तो भारत की जनता आज भी पूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम पर जान नहीं छिड़कती, उनका नाम सुनते साथ लोगों के मन में श्रद्धाभाव प्रकट ना होता। सत्य यह है कि उन्होंने वर्षभर पहले स्वयं अपने धर्म के नाम का पान चबा कर अपने शुभ्र-श्वेत कुर्ते पर पीक मार ली थी। देर-सवेर इनकी छोटी सी त्रुटि भी इनके लिए मुसीबत खड़ी करती ही। कभी कभी प्रोटोकॉल/नियम तोड़ना श्रेयस्कर होता है। कुर्ते पर दाग तो लग चुका था, अब उपराष्ट्रपति महोदय तलवार की धार पर चल रहे हैं। आशा यही है कि बिना संतुलन खोये वे इस डगर को पार कर लेंगे। विवाद का उत्तरदायित्व केवल लोगों के प्रोटोकॉल के ज्ञान के आभाव पर डालना अर्धसत्य होगा। ताली एक हाथ से नहीं बजती। 

॥ इति शुभम् ॥ 

श्रृंखला :
१. (व्यंग) क्या उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पर विवाद के पीछे आरएसएस का हाथ है ?
२. (सीधी बात) क्यों उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को सही होते हुए भी निंदा का सामना करना पड़ा?
३. (सीधी बात) उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के आँगन में नाचते गड़े मुर्दों की कहानी 
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