कभी जयचंदों से बनते रहे हैं,
कभी सावन के अंधों से बनते रहे हैं
युग अनगिनत
इन आँखों में धूल छनते रहे हैं
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कभी जाति कभी धर्म के नाम पर
कभी पेट, कभी मर्म के दाम पर
कभी बिकते, कभी लुटते,
सदा अपने घाव गिनते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कश्मीर का मानचित्र अधूरा,
अरुणाचल को भी परायों ने घेरा।
अपनी ही धरती के लिए खींचते-तनते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
लड़े थे एक मातृभूमि के लिए
पर हुए स्वतंत्र, माँ के दो टुकड़े किये।
कुछ और टुकड़ों में ना बिखरे ये राष्ट्र
इस बात से डरते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
था कोई समय जब रानी लक्ष्मीबाई और महाराणा प्रताप प्रेरणा स्रोत हुआ करते थे
जब माताएं जिजाबाई और पुत्र शिवाजी जैसे लोग हुआ करते थे।
कन्याएं बनना चाहें अब 'बेबी डॉल', पिछले कुछ दिनों से लौंडे 'यो यो डूड' रटते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कोई प्रतिदिन, कोई हर ५ सालों में,
भरें आशाओं से मन, और लूट लें फंसा कर बातों के जालों में।
कभी बाहर वालों को, तो कभी अपनों को दे कर मत स्वयं को छलते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कोई बना ले फूल, कोई बना ले कांटा।
हमको तो अपनों ने ही टुकड़ों में बांटा।
परायों का कोई क्या दुखड़ा रोये, यहाँ तो आस्तीन में भुजंग पलते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
~ आशुतोष ओ. साहू
कभी सावन के अंधों से बनते रहे हैं
युग अनगिनत
इन आँखों में धूल छनते रहे हैं
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कभी जाति कभी धर्म के नाम पर
कभी पेट, कभी मर्म के दाम पर
कभी बिकते, कभी लुटते,
सदा अपने घाव गिनते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कश्मीर का मानचित्र अधूरा,
अरुणाचल को भी परायों ने घेरा।
अपनी ही धरती के लिए खींचते-तनते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
लड़े थे एक मातृभूमि के लिए
पर हुए स्वतंत्र, माँ के दो टुकड़े किये।
कुछ और टुकड़ों में ना बिखरे ये राष्ट्र
इस बात से डरते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
था कोई समय जब रानी लक्ष्मीबाई और महाराणा प्रताप प्रेरणा स्रोत हुआ करते थे
जब माताएं जिजाबाई और पुत्र शिवाजी जैसे लोग हुआ करते थे।
कन्याएं बनना चाहें अब 'बेबी डॉल', पिछले कुछ दिनों से लौंडे 'यो यो डूड' रटते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कोई प्रतिदिन, कोई हर ५ सालों में,
भरें आशाओं से मन, और लूट लें फंसा कर बातों के जालों में।
कभी बाहर वालों को, तो कभी अपनों को दे कर मत स्वयं को छलते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
कोई बना ले फूल, कोई बना ले कांटा।
हमको तो अपनों ने ही टुकड़ों में बांटा।
परायों का कोई क्या दुखड़ा रोये, यहाँ तो आस्तीन में भुजंग पलते रहे हैं।
हम तो सदियों से अप्रैल फूल बनते रहे हैं।
~ आशुतोष ओ. साहू
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