बिपिन चन्द्र पाल और गांधीवाद की हिटलरशाही

आज बिपिन चन्द्र पाल जी की जयंती है। नाम तो सुना होगा आपने। नहीं? बचपन में इतिहास में 'लाल-बाल-पाल' के बारे में पढ़ा था? हान्जी, ये वही लाल-बाल-पाल की तिकड़ी में से एक महा तिकड़मी स्वतंत्रता सेनानी हैं। इन्हें भारतीय क्रन्तिकारी विचारों के जनक के रूप में भी जाना जाता है। और तो और स्वदेशी आन्दोलन तथा विदेशी बहिष्कार भी इनकी ही उपज थी। आपको लगा होगा कि गाँधी जी की उपज थी ये, नहीं? इस बारे में देखा जाये तो 'ब्रांडिंग' का सारा खेल था। माल तो उगाया किसान ने परन्तु उसकी पैकेजिंग कर के जिसने अपने ब्रांड का ठप्पा उसपर लगा लिया, वो चीज़ उसकी! नहीं नहीं...गाँधी जी पर आक्षेप नहीं कर रहे हम। गाँधी जी को 'प्रोडक्ट' बना कर उसे बेचने वालों की बात कर रहे हैं।

आज पीछे मुड़ कर लाल-बाल-पाल को इतिहास में खोजने का प्रयत्न किया तो लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिनचंद्र पाल के समक्ष स्वयं को लज्जित पाया। आधुनिक भारत के स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद करने वालों के नाम केवल कुछ पंक्तियाँ ही थीं पाठशाला की पुस्तकों में। गाँधी जी पर तो ...खैर छोडिये। अभी कुछ दिनों पहले कुछ लोग रुदाली विलाप कर रहे थे कि इंदिरा गाँधी को लोग भुलाने के प्रयत्न कर रहे हैं। सही बात है, बस एक परिवार विशेष को छोड़ कर बाकी सब को भुला देना चाहिए, नहीं? चाहे वह कांग्रेसी ही क्यों ना रहे हों! आखिर इनके 'अहिंसा' के पथ पर चल कर ही तो भारत को स्वतंत्रता मिली। बाकि सशत्र स्वतंत्रता संग्राम ने तो कुछ किया ही नहीं। सच पूछिए तो स्वतंत्र होने के पश्चात जूनागढ़ और हैदराबाद का भारत में विलय इसी सत्य-अहिंसा के मार्ग पर चल कर ही तो हुआ था। इसी गाँधी परिवार के सदस्य ही तो गए थे रजाकारों के समक्ष धरना देने! मैं तो कहता हूँ अल कायदा और आइ एस आइ एस से भी ऐसे ही भूख हड़ताल और धरनों के दम पर विरोध करना चाहिए...उनका ह्रदय परिवर्तन करना चाहिए। नहीं?

सच तो यह है कि स्वतंत्रता घंटा इन धरनों-उपवासों के दम पर मिली! क्रांतिकारियों ने अंग्रेज सरकार की मेरुदंड(spine) ही तोड़ कर रख दी थी। जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश राज इतना चरमरा गया कि यदि किसी ने इनकी नाक में उंगली भी कर दी होती तो छींक मारते साथ ही पीछे से 'बौछार' भी निकल पड़ती, तो अंग्रेजों की हालत भागते भूत सी हो गयी थी जिसने जैसे-तैसे अपनी लंगोट सम्हाली!

बिपिन चन्द्र पाल जी का असहयोग आंदोलनों जैसे गाँधी जी के हथकंडों पर घनघोर मतभेद था...कदाचित इसी के फलस्वरूप अपने जीवन के अंतिम ६ वर्ष इस महान स्वतंत्रता सेनानी को अज्ञातवास में काटने पड़े। ध्यान से देखें तो जिस किसी ने भी गाँधीवादी विचारधारा से तनिक भी मतभेद दिखाने का दुस्साहस किया, उसका यही हाल हुआ। जिस अहिंसावादी गांधीवाद को सहिष्णुता का पर्यायवाची समझा जाता है, उसकी कैसी ये असहिष्णु तथा हिंसक चाल?

जिस बिपिन चन्द्र पाल को श्री अरबिंद ने राष्ट्रवाद का महानतम पैगम्बर कहा था, आज उनकी जयंती पर उन्हें याद करने वालों में कुछ ही लोग हैं। आज के दिन की बात तो छोडिये, गांधियों के सिवा हर किसी स्वतंत्रता सेनानी को नेपथ्य (background) में धकेल दिया गया। क्यों ऐसा किया गया और किसने किया ये सब जानते हैं। प्रश्न ये नहीं कि क्यों बाकी के बलिदानियों को भुलाया गया...प्रश्न ये है कि जिस शिक्षा को मनुष्य के विचारों को पंख देने का कार्य करना चाहिए, वही शिक्षा कोमल पंखों को क्यों क़तर रही है? क्यों बचपन से ही हमें गाँधीवादी विचारधारा के समक्ष आत्मसमर्पण करने पर बाध्य किया गया और जा रहा है?

आज मैं गांधीगिरी के इस हिटलरशाही के विरुद्ध विद्रोह करता हूँ... आज मैं श्री बिपिन चन्द्र पाल के समक्ष नतमस्तक होता हूँ।

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1 comments:

  1. अरे साहब... इनको कौन भूल सकता है। गांधी की गंदगी आपके नाम से फटी रहा करती थी। आपको तो गांधी जी के प्रथम आलोचकों में से एक माना जाता है। आप स्वनामधन्य "स्वराज" पत्रिका के जनकों में एक रहे। प्रसिद्ध शिक्षक, ईमानदार पत्रकार, लेखन में एक सशक्त हताक्षर होने के साथ ही साथ आपके स्तर का वक्ता कोई विरला ही होता है।

    मित्र, बहुत अच्छा लगा यह ब्लॉग देखकर। चैन-ओ-सुकून मिला कि इस पीढ़ी में भी अभी भी मूल्य जीवित है कहीं न कहीं।
    और हाँ - "गाँधी जी पर तो ...खैर छोडिये" बेहतरीन लगा। घृणा की पराकाष्ठा दिखाई दी, जो कि आपकी अकेली नहीं है :)

    ईश्वर आपका कल्याण करें...

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