बहुधा एकांत में मेरे मन के विचारों के घोड़े स्वच्छंद दौड़ लगाते हैं तथा भविष्य तथा भूतकाल में विचरण करते हैं। ऐसे में यदा-कदा मन इस बिंदु के चक्कर काटने लगता है कि मैं एकल(सिंगल) क्यूँ हूँ? भूतकाल के चित्र तीव्र-गति (फ़ास्ट फॉरवर्ड) से चक्षुओं के समक्ष उड़ने लगते हैं और फिर एक हास्य। जी हाँ हास्य। मेरी अबतक की एकल जीवन यात्रा किसी व्यंग से कम नहीं लगती।
वैसे ही किसी लड़की से बात कर लें इतनी हिम्मत ना होती थी। बात करने जाएँ तो दिल लौह-पथ-गामिनी अर्थात ट्रेन की भांति धड़धड़ाने लगता था। गला सूखने लगता था सो अलग। बोलने से पहले और कुछ बोल लो तब भी मन बार बार कह रहा होता था कि भाग ले बेटा। माथे पर पसीना और पेट में आंधी! हे प्रभु, किस मिटटी से बनाया मुझे? जैसे तैसे कॉलेज में लड़कियों से बात करना शुरू किये तो और कई बाधाएं आन पड़ीं। साला, जीवन है या बाधा-दौड़!
कॉलेज में जहाँ लौंडे कार और बाइक पर सवार उड़ते रहते थे, हम बस में लटक कर आते थे इसलिए जहाँ वो महक रहे होते थे, हम पसीने से लथपथ! और तो और, उनके पास जहाँ एक से बढ़ के नए मोबाइल, हम अपने पाषाण-युगीन नोकिया में ही संतुष्ट थे। एक पतली मूंछ, मुहासों वाले गाल और चश्मे वाली आँखें लिए दुबले-पतले 'कड़के'-लड़के पर कोई कन्या दृष्टि डाले भी तो क्यों? इस क्यों और कैसे वाले प्रश्नों का उत्तर 'ज्ञान' हरी पुस्तकों तथा फिल्मों में ढूंढने के प्रयत्न किये तो पाया की पहले किसी कन्या के निकट होना, उसे जानना तथा उसके मित्र बनना अत्यावश्यक है। "मित्रता प्रेम की पहली सीढ़ी है" - ये बात हमने गाँठ बांध ली। सालभर के अथक परिश्रम के बाद हमने स्वयं को हमारी कक्षा की अनेक कन्याओं का परम मित्र पाया। हम प्रन्नता से झूमे जा रहे थे कि तभी हमारे मनोरथ का रथ 'फ्रेंड-ज़ोन' नमक खाई में प्रवेश कर गया। अब जिन कन्याओं से पप्रेम की अपेक्षा की थी, वही कन्याएं किसी दुसरे सजन-निर्मोही के लिए हमारे कंधे पर सर रख कर रोती थीं। हाय री किस्मत!
हम भी कम नालायक ना थे! अब जब भूतकाल में झांकता हूँ तो सोचता हूँ क्या आवश्यकता थी मुझे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र बनने की? एक दिन कक्षा में एक कन्या अपने सुन्दर लम्बे केशों का त्याग कर बाल छोटे कटवा आई। सबसे पूछती फिर रही थी की कैसी लग रही हूँ। लौंडे होशियार थे जो प्रशंसाओं के पुल बांध रहे थे। मुझसे पूछी तो मैं चपड़गंजु बोल बैठा "मायावती जैसी दिख रही हो।" … उस दिन के पश्चात देवी जी ने कभी भूल कर भी हमसे बात नहीं की। वाह सत्यवादी छोरे, वाह ! एक तो गरीबी, ऊपर से आंटा गीला कर लिए! जियो!
किसी प्रकार भाग्य ने करवट ली और कामदेव के आशीर्वाद से एक कन्या ने हमारे जैसे सांड (पिताजी हमें इसी नाम से सम्बोधित करते हैं) को घांस डाली। हमें यूं लगने लगा कि हमारे सावन-सोमवार के उपवास का फल भोले बाबा ने हमें दे दिया। कुछ ही दिनों में वो कन्या हमारे अत्यंत निकट आ गयी। रात को नींद की बलि दे कर प्रतिदिन घंटों फ़ोन पर बतियाते थे हम। मेरा नाम अब बदल कर बेबी, शोना, बाबू, पुच्चु, चीकू इत्यादि हो चुका था। जब मित्रों को इन नामों के बारे में पता चला तो सालों ने सामूहिक ले ली मेरी। मुझे भी बहुधा इन नामों से तनिक अचकचाहत अवश्य होती थी परन्तु प्रेम के पाश में बंधे हुए हम सबकुछ सहर्ष सहते थे। लोग प्रेम के लिए क्या नहीं कर जाते, ये तो केवल नामों का झमेला था! वैसे भी अंग्रेजी की कहावत है 'बेगर्स आर नॉट चूसर्स' - अर्थात भिखमंगों को नकचढाइ शोभा नहीं देती। सो ये सब तो चलता ही था। परन्तु यहीं धीरे-धीरे पता चलने लगा कि ज्ञानीजन 'प्रेम-पाश' क्यों कह गए हैं और 'प्रेम-पंख' क्यों नहीं! (पाश = फन्दा/noose)
अब परीक्षा निकट आ रही थी और रात्रि-वार्तालाप के लिए समय निकाल पाना कठिन। फिर भी पढाई का नुक्सान कर के भी यह दायित्व निर्वहन कर रहे थे हम। साथ ही, धीरे-धीरे यूं होने लगा था कि अब देवी जी को जब भी बतियाना होता तो वो हमें मिस्ड-कॉल चिपका देतीं और फिर कॉल-बैक करने पर घंटे भर बतियाती, और ये क्रम प्रतिदिन कम से कम ३-४ बार होता। कॉलेज में जहाँ पॉकेट-मनी पर गुजारा होता था, यह तो मेरे लिए कठिन होता जा रहा था और बात ना कर पाने की स्थिति में देवी जी मुंह पहला कर बैठ जाती थीं! मित्रों से ऋण लेना पड़ रहा था। धीरे-धीरे चड्डियाँ बिकने की नौबत आन पड़ी। अब हमें 'दाल-आंटे का भाव' पता चल रहा था। एक दिन घर का सामान लेने के लिए हम बाजार में भटक रहे थे। दोनों हाथों में फलों-सब्जियों से भरे भारी थैले लिए, पसीने में लतपथ, लतपथ, लतपथ.... तथा ग्रीष्म ऋतू में मार्ग हो चुका था अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ! इतने में हमारी पतलून की जेब में नोकिया महाराज बजने लगे। किसी तरह फोन उठा कर पसीना पोंछते हुए बात की तो देवी जी ने चहकते हुए कहा पूछा "कहाँ हो?", सारा हाल बता दिया तब भी देवी जी ने आशा जतलाई कि मैं भरी दोपहर, पसीने में लथपथ, बीच बाजार, दोनों हाथों में भारी थैले धरे हुए उनसे प्रीती वार्तालाप करूँ … क्यों? क्योंकि 'इट्स सो क्यूट एंड रोमांटिक' … "अबे माँ दुचाये तेरा रोमांस, डांग मराये तेरा क्यूट, लहन की बौडी फोन रख!"
हाँ तो मित्रों, अब आप समझ ही गए होंगे कि हम अबतक एकल क्यों है।
वैसे ही किसी लड़की से बात कर लें इतनी हिम्मत ना होती थी। बात करने जाएँ तो दिल लौह-पथ-गामिनी अर्थात ट्रेन की भांति धड़धड़ाने लगता था। गला सूखने लगता था सो अलग। बोलने से पहले और कुछ बोल लो तब भी मन बार बार कह रहा होता था कि भाग ले बेटा। माथे पर पसीना और पेट में आंधी! हे प्रभु, किस मिटटी से बनाया मुझे? जैसे तैसे कॉलेज में लड़कियों से बात करना शुरू किये तो और कई बाधाएं आन पड़ीं। साला, जीवन है या बाधा-दौड़!
कॉलेज में जहाँ लौंडे कार और बाइक पर सवार उड़ते रहते थे, हम बस में लटक कर आते थे इसलिए जहाँ वो महक रहे होते थे, हम पसीने से लथपथ! और तो और, उनके पास जहाँ एक से बढ़ के नए मोबाइल, हम अपने पाषाण-युगीन नोकिया में ही संतुष्ट थे। एक पतली मूंछ, मुहासों वाले गाल और चश्मे वाली आँखें लिए दुबले-पतले 'कड़के'-लड़के पर कोई कन्या दृष्टि डाले भी तो क्यों? इस क्यों और कैसे वाले प्रश्नों का उत्तर 'ज्ञान' हरी पुस्तकों तथा फिल्मों में ढूंढने के प्रयत्न किये तो पाया की पहले किसी कन्या के निकट होना, उसे जानना तथा उसके मित्र बनना अत्यावश्यक है। "मित्रता प्रेम की पहली सीढ़ी है" - ये बात हमने गाँठ बांध ली। सालभर के अथक परिश्रम के बाद हमने स्वयं को हमारी कक्षा की अनेक कन्याओं का परम मित्र पाया। हम प्रन्नता से झूमे जा रहे थे कि तभी हमारे मनोरथ का रथ 'फ्रेंड-ज़ोन' नमक खाई में प्रवेश कर गया। अब जिन कन्याओं से पप्रेम की अपेक्षा की थी, वही कन्याएं किसी दुसरे सजन-निर्मोही के लिए हमारे कंधे पर सर रख कर रोती थीं। हाय री किस्मत!
हम भी कम नालायक ना थे! अब जब भूतकाल में झांकता हूँ तो सोचता हूँ क्या आवश्यकता थी मुझे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र बनने की? एक दिन कक्षा में एक कन्या अपने सुन्दर लम्बे केशों का त्याग कर बाल छोटे कटवा आई। सबसे पूछती फिर रही थी की कैसी लग रही हूँ। लौंडे होशियार थे जो प्रशंसाओं के पुल बांध रहे थे। मुझसे पूछी तो मैं चपड़गंजु बोल बैठा "मायावती जैसी दिख रही हो।" … उस दिन के पश्चात देवी जी ने कभी भूल कर भी हमसे बात नहीं की। वाह सत्यवादी छोरे, वाह ! एक तो गरीबी, ऊपर से आंटा गीला कर लिए! जियो!
किसी प्रकार भाग्य ने करवट ली और कामदेव के आशीर्वाद से एक कन्या ने हमारे जैसे सांड (पिताजी हमें इसी नाम से सम्बोधित करते हैं) को घांस डाली। हमें यूं लगने लगा कि हमारे सावन-सोमवार के उपवास का फल भोले बाबा ने हमें दे दिया। कुछ ही दिनों में वो कन्या हमारे अत्यंत निकट आ गयी। रात को नींद की बलि दे कर प्रतिदिन घंटों फ़ोन पर बतियाते थे हम। मेरा नाम अब बदल कर बेबी, शोना, बाबू, पुच्चु, चीकू इत्यादि हो चुका था। जब मित्रों को इन नामों के बारे में पता चला तो सालों ने सामूहिक ले ली मेरी। मुझे भी बहुधा इन नामों से तनिक अचकचाहत अवश्य होती थी परन्तु प्रेम के पाश में बंधे हुए हम सबकुछ सहर्ष सहते थे। लोग प्रेम के लिए क्या नहीं कर जाते, ये तो केवल नामों का झमेला था! वैसे भी अंग्रेजी की कहावत है 'बेगर्स आर नॉट चूसर्स' - अर्थात भिखमंगों को नकचढाइ शोभा नहीं देती। सो ये सब तो चलता ही था। परन्तु यहीं धीरे-धीरे पता चलने लगा कि ज्ञानीजन 'प्रेम-पाश' क्यों कह गए हैं और 'प्रेम-पंख' क्यों नहीं! (पाश = फन्दा/noose)
अब परीक्षा निकट आ रही थी और रात्रि-वार्तालाप के लिए समय निकाल पाना कठिन। फिर भी पढाई का नुक्सान कर के भी यह दायित्व निर्वहन कर रहे थे हम। साथ ही, धीरे-धीरे यूं होने लगा था कि अब देवी जी को जब भी बतियाना होता तो वो हमें मिस्ड-कॉल चिपका देतीं और फिर कॉल-बैक करने पर घंटे भर बतियाती, और ये क्रम प्रतिदिन कम से कम ३-४ बार होता। कॉलेज में जहाँ पॉकेट-मनी पर गुजारा होता था, यह तो मेरे लिए कठिन होता जा रहा था और बात ना कर पाने की स्थिति में देवी जी मुंह पहला कर बैठ जाती थीं! मित्रों से ऋण लेना पड़ रहा था। धीरे-धीरे चड्डियाँ बिकने की नौबत आन पड़ी। अब हमें 'दाल-आंटे का भाव' पता चल रहा था। एक दिन घर का सामान लेने के लिए हम बाजार में भटक रहे थे। दोनों हाथों में फलों-सब्जियों से भरे भारी थैले लिए, पसीने में लतपथ, लतपथ, लतपथ.... तथा ग्रीष्म ऋतू में मार्ग हो चुका था अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ! इतने में हमारी पतलून की जेब में नोकिया महाराज बजने लगे। किसी तरह फोन उठा कर पसीना पोंछते हुए बात की तो देवी जी ने चहकते हुए कहा पूछा "कहाँ हो?", सारा हाल बता दिया तब भी देवी जी ने आशा जतलाई कि मैं भरी दोपहर, पसीने में लथपथ, बीच बाजार, दोनों हाथों में भारी थैले धरे हुए उनसे प्रीती वार्तालाप करूँ … क्यों? क्योंकि 'इट्स सो क्यूट एंड रोमांटिक' … "अबे माँ दुचाये तेरा रोमांस, डांग मराये तेरा क्यूट, लहन की बौडी फोन रख!"
हाँ तो मित्रों, अब आप समझ ही गए होंगे कि हम अबतक एकल क्यों है।
0 comments:
Post a Comment