नगर का गटर और जनता का मौन, क्रन्तिकारी और चायवाला

नगर का गटर 'चोक' हो गया
तो सारे हो उठे परेशान।
जिन्होंने प्लास्टिक की थैलियाँऔर कचरा डाला था उसमें
वो 'मौन' रह गए श्रीमान।
कुछ 'क्रन्तिकारी' लौंडे हाथों में झाड़ू लिए आये
और लगे लगाने नारे ,
पर गटर की बदबू से उनके होश उड़ गए सारे
और वो हो लिए किनारे।
इतने में आया एक कर्मठ 'चायवाला'
उससे न देखी गयी बदहाली।
भिड़ गया सफाई में गटर की
चढ़ा के वो बहोली(आस्तीन)।
अब वही क्रन्तिकारी लौंडे फिर से भौंक रहे हैं ,
दिखा के उंगली चौंक रहे हैं
कि चायवाले पर लगा है कीचड़
रुदाली-विलाप करते अब थकते नहीं ये लीचड़।

जनता बैठी अब सबकुछ देख रही है
अपने घावों को धीरज धर तौल रही है।
ना 'मौन' काम आया न आये काम 'क्रन्तिकारी'
अब सबने लगा रखी है 'चायवाले' से ही आशाएं सारी।

ना समझे कोई जनता अंधी है
वह तो केवल अपने पेट के कारागार में बंदी है।
बैठ सिंहासन ना करेगा पूरी जो इसकी आशा
ना लगेगी देरी पदच्युत होने में, देखोगे तमाशा।

मानो इसे चेतावनी चाहे 'मा(इ)नो' इसे लगाम
'मौन' धर बैठो सारे 'क्रन्तिकारी' अभी
करने दो 'चायवाले' को उसका काम।
जो ना काम हुआ उससे तो जनता की चाय भी खौलेगी
तुला में समय के जनता उसे भी तौलेगी।
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3 comments:

  1. Awesome.....

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  2. Maybe a silly suggestion... Make it a bit simple :) for simpletons like me :) otherwise gr8!

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  3. बहुत उत्तम लिखा है आपने।दिल खुश हो गया।

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