पत्रकारिता में रुदालियों और बाजीगरों की भूमिका

मित्रों एवं सहेलियों,
आज हम समाज में आई क्रांति में समाचार चैनलों के योगदान का बखान करने जा रहे हैं, तनिक श्रद्धापूर्वक पढियेगा।

एक समय था जब रुदालियाँ घर घर जा कर लोगों की मईय्यत में रो कर आजीविका अर्जित करतीं थीं। तब लोग मरा भी तो अधिक करते थे। एक महामारी आई नहीं कि रुदालियों को ग्राहकों की बहुतायत हो जाती थी। फिर नई चिकित्सा पद्धतियों और चिकित्सालयों ने इनकी रोज़ी-रोटी ही छीन ली। यही हाल बेचारे बाजीगरों और जमूरों का हुआ। अच्छा-खासा रास्ते पर भीड़ इकट्ठी कर तमाशा दिखाया करते थे। ये मुआँ टेलीविज़न जब से आया सब घरों में दुबक कर बैठ गए। इन बेचारों के तो पेट पर लात पड़ गई ! जब ये दोनों व्यवसायों के लोग भूख और गरीबी से तड़प रहे थे, तब इनकी ओर हाथ बढ़ाया आज के समाचार चैनलों ने और देखते ही देखते ना केवल समाचारों को रोचक बनाया, अपितु इन रुदालियों, बाजीगरों और जमूरों का जीवन ही संवार दिया। उधर दल्ले भी नए धंदे ढून्ढ रहे थे।  यहाँ भी इन्ही समाचार चैनलों ने इन्हें गले से लगाया। कौन सा समाचार दिखाना है और कौन सा दबाना है इसकी बोली इन  दल्लों के हाथ लगाई जाती है।

अब चाहे कहीं आपदा आई हो या कहीं नरसंहार हुआ हो या फिर किसी की जान गयी हो , जमूरा अपने उस्ताद बाज़ीगर को ले कर वहां पहुँच जाता है। फिर जमूरा कैमरा ले कर तैयार खड़ा होता है और उस्ताद का खेल दिखाना शुरू - ताने माइक्रोफोन लोगों के मुंह के सामने और किये प्रश्न - "आप कैसा महसूस कर रहे हैं?" चाहे फिर वह किसी सैनिक की विधवा हो या किसी महाविद्यालय के छात्र, सबके घावों से बहते लहू से मसाला निकालते हैं। वहां दूसरी ओर स्टूडियो में बैठी रुदाली छाती पीट-पीट कर रोती है। साथ ही इस सीन में 'फील' लाने के लिए बैकग्राउंड-म्यूजिक का प्रयोग किया जाता है। कभी कभी नेपथ्य (background) में बड़े परदे पर दुर्घटना का ही मर्मस्पर्शी दृश्य चल रहा होता है और सामने रुदालियों की एक पूरी टोली बैठ कर मातम मनाते दिखाई देती है। पूरे दृश्य पर चार चाँद उस कार्यक्रम को दिया गया शीर्षक लगा देते हैं। उदाहरण के लिए - 'मौत की फोटोग्राफी', 'सदमे का सैलाब', 'मौत लाइव' इत्यादी। मतलब कैसी भी त्रासदी क्यों ना हो, आज के समाचार चैनल उसमें मिर्च मसाला लगा कर परोसते में माहिर हैं। भाई मान गए! पूरा आईपीएल जैसा तड़का लगा दिया - खिलाडी भी हैं, चीयर-लीडर भी, संगीत भी और रोमांच भी!

कई बार यह भी समस्या होती है कि कौनसा समाचार बढ़ा-चढ़ा दिखाया जाये और कौनसा कचरे के डिब्बे में डाल दिया जाये। जैसे आसाराम बापू, स्वामी नित्यानंद, शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जैसे हिन्दू संतों की तो धोती कई दिनों तक मीडिआ खींचती रही परन्तु क्रिश्चियन पादरियों एवं मदरसे के मौलानाओं के समाचार दबा दिए गए। अब क्या है ना कि बहुसंखयक हिन्दू समाज के पिछवाड़े में डंडा करो तो टीआरपी अधिक मिलती है और कोई तोड़-फोड़ की घटनाएं भी नहीं होती। बाकी बचे 'सेक्युलर' समुदायों की भावनाएं अत्यधिक कोमल हैं - तनिक भी आँच आई तो भड़क उठते हैं।

पर क्या केवल समाचार चैनलों पर ही इस सब का श्रेय छोड़ देना चाहिए? अजी, हम जनता-जनार्दन ने भी तो प्रोत्साहन दिया है इन्हें। फिर हमें अपनी भी पीठ नहीं थपथपानी चाहिए? एक समय था जब समाचार कार्यक्रमों में ये सब मसाला ना हो कर केवल फीकी खिचड़ी समान समाचार परोसा करते थे। जनता की रियलिटी शोज की भूख को इन समाचार चैनलों ने पहचाना और जो हमें चाहिए वही हमें परोसा। अब सोशल मीडिआ के ज़माने में यदि आप यह सोचते हैं कि सारा श्रेय इन समाचार चैनलों को जाना चाहिए तो बंधुवर, आप से अधिक विनम्र विभूति के दर्शनों के सौभाग्य से अभी तक वंचित ही है आपका यह दास!


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3 comments:

  1. aasaram pakda gaya toh teri me mirchi kyun lag rhi hai....????
    aur uss kaand pe TRP isliye mili kyunki Tum jaise Gandu log uss balatkari ka samarthan kar rhe the.....

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  2. Oye jhatu ..tere mulla n padri tere maa chodte hai roj..news walo ne use b dhikana chaiye ye bol rahe hai..
    Samjha gandu..

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  3. Bhai hakikat ko bayan kar rahi hai aapki ye blog........padh k dukh hua par hum bhusankhya log inka virodh kyun nhi karte

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