करबद्ध प्रार्थना : भद्र महिलाएं एवं पुरुष जो 'संवेदनशील' भाषा नहीं झेल पाते अथवा कटाक्ष जिनके लिए परग्रही भाषा के समान है वे इस आलेख से दूर रहें। प्रेस्टीट्यूट्स तो कतई दूर रहें, भावनाएं आहत होने की भीषण संभावनाएं हैं।
साथियों, पिछले कुछ दिनों से आप देख रहे होंगे कि महामहिम अर्नब गोस्वामी तथा टाइम्स नाउ चैनल पर कई लोग 'विशेष उपमाओं' की बौछार कर रहे हैं। लोगों को लग रहा है कि किसी कारण विलक्षण बुद्धि के स्वामी अर्नब जी की विलक्षण बुद्धि अवकाश ले कर किसी सूदूर प्रान्त में घाँस चरने प्रस्थान कर गयी है... कि अर्नब गोस्वामी तथा समस्त टाइम्स नाउ चैनल परिवार किसी उच्च कोटि की चरस फूँक रहे हैं; तभी तो पहले महामहिम अर्नब ने भारतीय क्रिकेट टीम के विश्व कप से बाहर होने पर रंडाप कर के अपनी मरवा ली फिर टाइम्स नाउ वालों ने जनरल वी के सिंह के कटाक्ष पर अपनी भाषा प्रयोग की अज्ञानता को जगजाहिर कर दिया। लगता है इन्हें अपनी मरवाने में अब मज़ा आने लगा है—ऐसा मैं नहीं, लोग कह रहे हैं। जिस प्रकार जनता मीडिया वालों की गुदा से गूदा निचोड़ रही है, यदि अब भी ये नहीं सम्हले तो चुन-चुन कर इन पत्तर-कारों पर ठीक उसी प्रकार छित्तर-वार होगा जैसा खाजदीप धर-दे-भाई पर अमरीका में हुआ था—ये भी मैं नहीं, लोग कह रहे हैं।
बड़ा दुःख होता है लोगों की ऐसी अज्ञानता भरी बातें सुन कर। काका अर्थात राजेश खन्ना जी के कालजयी शब्दों—"कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। छोडो बेकार की बातों को, कहीं कोई लील ना जाए चकना" को स्मरण कर के चुप रह जाते हैं। परन्तु कोई कब तक चुप रहे? हर किसी के धैर्य की एक सीमा तो होती ही है! अब कल की ही बात ले लीजिये। हम कार्यालय में कार्य समाप्त कर निकट की ही एक टपरी में संध्या की चाय का आनंद ले रहे थे। वहीँ कुछ कुतर्की बैठे बकैती पेल रहे थे। पहला बोले जा रहा था, दूसरा हाँ में हाँ मिला रहा था। पहले ने एक लघुकथा सुनानी प्रारम्भब की तो मैं भी कान लगा कर सुनने लगा। कथा कुछ इस प्रकार है—
एक बार की बात है। गाँव में हर किसी के यहाँ शौचालय तो होते नहीं, तो जहाँ कुछ लोग खुले मैदान में नीले आकाश के नीचे दीर्घशंका से निवृत्त होने का विलक्षण आनंद प्राप्त करते हैं, तो कुछ लोग घनी झाड़ियों में छिप कर इस कार्य को संपन्न करते हैं। ऐसे ही एक महानुभाव को झाड़ियों में बैठना अत्यधिक प्रिय था, अतः प्रतिदिन वे प्रातः नित्यक्रिया निपटाने के लिए उपयुक्त झाड़ी का चयन कर उखड़ू बैठ जाते थे। एक दिन अपनी पत्नी से प्रताड़ित हो गृह-त्याग कर निकला एक बूढ़ा नाग अपने लिए नई बाम्बी ढूंढ रहा था। भटकता हुआ वह नाग पीछे की और से उसी झाडी के निकट पहुँच गया जहाँ ये महानुभाव विराजमान हो प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद ले रहे थे। वृद्ध होने के कारण नाग की दृष्टि क्षीण पड़ चुकी थी। नाग को इस अभागे व्यक्ति का गुदाद्वार किसी कोमल बाम्बी जैसा लगा और वह उसमें प्रवेश कर गया। व्याकुल, इस व्यक्ति ने कई प्रयत्न किये कि इस नाग को बाहर निकाले—दूध परोसा, चिमटे से प्रयत्न किया परन्तु सारे प्रयास विफल! कहाँ जाए, किसे बताये? लज्जा के मारे किसी से बताते भी ना हो। अंततः इस व्यक्ति ने अपने घनिष्टतम मित्र से अपनी कठिनाई बताने की सोची। एक सच्चा मित्र इस प्रकार की दुर्घटनाओं पर आज की "हर एक फ्रेंड कमीना होता है" वाली निर्लज्ज पीढ़ी के सामान हँसता नहीं, अपितु अपने मित्र की सहायता करता है। उस मित्र ने अपने सच्चे मित्र होने का प्रमाण देते हुए अत्यंत गम्भीरतापूर्वक इस समस्या के निवारण हेतु एक उपाय सुझाया—उसने सुना था कि दूर जंगल में एक सपेरा रहता है, जिसकी बीन सुन कर चाहे कैसा भी साँप हो, सम्मोहित हो कर अपने बिल से बाहर आ जाता था।
मित्र का संकेत समझते ही इन महानुभाव ने अपनी समस्या पुनः समझाई कि उसे किसी अन्य के समक्ष जाते हुए लज्जा आएगी, और प्रार्थना की कि बीन बजा कर नाग को बाहर निकालने का प्रयत्न मित्र ही करे । मित्र ने अपनी जी-जान लगा कर बीन बजाई। बीन बजते ही नाग बाहर निकलने लगता, परन्तु शीघ्र ही किसी कारणवश बीन का सम्मोहन टूट जाता और वह पुनः अपनी 'बाम्बी' में प्रवेश कर जाता। यह क्रिया पूरे एक प्रहर तक चलती रहने के पश्चात दोनों मित्रों ने थक-हार कर सपेरे के पास ही जाने का निश्चय किया। अब जैसे ही सपेरे ने बीन में फूँक मारी, बूढ़ा नाग बाहर आने लगा। अब जब नाग पूर्णतया बाहर आने ही वाला था तब महानुभाव ने सपेरे को रोक दिया और घर आ गया। दूसरे दिन पुनः वह अपने मित्र के पास बीन ले कर पहुँच गया और उसे पुनः नाग को बाहर निकालने का प्रयत्न करने की विनती करने लगा। मित्र मान गया, पर पुनः विफलता ही हाथ लगी। इस प्रकार कुछ दिन ऐसे ही विफल प्रयासों के पश्चात मित्र ने ना कर दी। महानुभाव ने मित्र के चरण पकड़ लिए, सहायता करने के लिए मित्र को नाना प्रकार के प्रलोभन भी दिए, परन्तु मित्र नहीं माना। अंत में मित्र एक शर्त पर माना—कि महानुभाव इस बात का रहस्योद्घाटन करें कि क्यों वे उस सपेरे के पास से लौट आये और केवल अपने मित्र से ही उपचार करवाना चाहते हैं। जब रहस्योद्घाटन के सिवा और कोई चारा नहीं दिखा तब महानुभाव लजाते हुए बोले,"क्योंकि आनंद आता है"
—इस प्रकार इस लघुकथा का अंत होते ही दोनों मित्र दानवों जैसे ठहाके लगाने लगे। छी! माने, इनका तर्क ये था कि टाइम्स नाउ एवं महामहिम अर्नब गोस्वामी जी को लोगों की गालियाँ खाने पर आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है? ऐसा भी कभी होता है भला?
क्या लोग जानते नहीं कि पत्रकार लोग सर्वज्ञाता होते हैं? उन्हें क्रिकेट के मैदान से ले कर युद्ध की रणभूमि तथा परमाणु भौतिकी (न्युक्लीअर फिजिक्स) से ले कर अर्थशास्त्र - हर विषय में महारथ प्राप्त होती है ! जब इतना सब जानते हैं पत्तरकार लोग, तो सिंह साहब के कटाक्ष नहीं समझ पाएंगे क्या? नहीं मतलब, कमाल करते हो यार! सच बात तो ये है कि लोगों को ही कटाक्ष नहीं समझ आते, तभी तो वे टाइम्स नाउ वालों के कटाक्ष नहीं समझ पाये! अब भी नहीं समझे? अरे बंधू, जनरल साहब के कटाक्ष के प्रत्युत्तर में टाइम्स नाउ वालों ने भी कटाक्षों से पेंच लड़ाई थी—वे सिंह सा'ब के साथ कटाक्ष-कटाक्ष खेल रहे थे, और जनता ने इस बात को गंभीरता से ले लिया और लगे टाइम्स नाउ और अर्नब गोस्वामी जैसे महाज्ञानियों को अंट-शंट कहने। अरेरेरे! क्या समय आ गया है, घोर कलजुग है भइया, घोर कलजुग! क्या यही हैं अच्छे दिन? मोदी जी उत्तर दें।
साथियों, पिछले कुछ दिनों से आप देख रहे होंगे कि महामहिम अर्नब गोस्वामी तथा टाइम्स नाउ चैनल पर कई लोग 'विशेष उपमाओं' की बौछार कर रहे हैं। लोगों को लग रहा है कि किसी कारण विलक्षण बुद्धि के स्वामी अर्नब जी की विलक्षण बुद्धि अवकाश ले कर किसी सूदूर प्रान्त में घाँस चरने प्रस्थान कर गयी है... कि अर्नब गोस्वामी तथा समस्त टाइम्स नाउ चैनल परिवार किसी उच्च कोटि की चरस फूँक रहे हैं; तभी तो पहले महामहिम अर्नब ने भारतीय क्रिकेट टीम के विश्व कप से बाहर होने पर रंडाप कर के अपनी मरवा ली फिर टाइम्स नाउ वालों ने जनरल वी के सिंह के कटाक्ष पर अपनी भाषा प्रयोग की अज्ञानता को जगजाहिर कर दिया। लगता है इन्हें अपनी मरवाने में अब मज़ा आने लगा है—ऐसा मैं नहीं, लोग कह रहे हैं। जिस प्रकार जनता मीडिया वालों की गुदा से गूदा निचोड़ रही है, यदि अब भी ये नहीं सम्हले तो चुन-चुन कर इन पत्तर-कारों पर ठीक उसी प्रकार छित्तर-वार होगा जैसा खाजदीप धर-दे-भाई पर अमरीका में हुआ था—ये भी मैं नहीं, लोग कह रहे हैं।
बड़ा दुःख होता है लोगों की ऐसी अज्ञानता भरी बातें सुन कर। काका अर्थात राजेश खन्ना जी के कालजयी शब्दों—"कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। छोडो बेकार की बातों को, कहीं कोई लील ना जाए चकना" को स्मरण कर के चुप रह जाते हैं। परन्तु कोई कब तक चुप रहे? हर किसी के धैर्य की एक सीमा तो होती ही है! अब कल की ही बात ले लीजिये। हम कार्यालय में कार्य समाप्त कर निकट की ही एक टपरी में संध्या की चाय का आनंद ले रहे थे। वहीँ कुछ कुतर्की बैठे बकैती पेल रहे थे। पहला बोले जा रहा था, दूसरा हाँ में हाँ मिला रहा था। पहले ने एक लघुकथा सुनानी प्रारम्भब की तो मैं भी कान लगा कर सुनने लगा। कथा कुछ इस प्रकार है—
एक बार की बात है। गाँव में हर किसी के यहाँ शौचालय तो होते नहीं, तो जहाँ कुछ लोग खुले मैदान में नीले आकाश के नीचे दीर्घशंका से निवृत्त होने का विलक्षण आनंद प्राप्त करते हैं, तो कुछ लोग घनी झाड़ियों में छिप कर इस कार्य को संपन्न करते हैं। ऐसे ही एक महानुभाव को झाड़ियों में बैठना अत्यधिक प्रिय था, अतः प्रतिदिन वे प्रातः नित्यक्रिया निपटाने के लिए उपयुक्त झाड़ी का चयन कर उखड़ू बैठ जाते थे। एक दिन अपनी पत्नी से प्रताड़ित हो गृह-त्याग कर निकला एक बूढ़ा नाग अपने लिए नई बाम्बी ढूंढ रहा था। भटकता हुआ वह नाग पीछे की और से उसी झाडी के निकट पहुँच गया जहाँ ये महानुभाव विराजमान हो प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद ले रहे थे। वृद्ध होने के कारण नाग की दृष्टि क्षीण पड़ चुकी थी। नाग को इस अभागे व्यक्ति का गुदाद्वार किसी कोमल बाम्बी जैसा लगा और वह उसमें प्रवेश कर गया। व्याकुल, इस व्यक्ति ने कई प्रयत्न किये कि इस नाग को बाहर निकाले—दूध परोसा, चिमटे से प्रयत्न किया परन्तु सारे प्रयास विफल! कहाँ जाए, किसे बताये? लज्जा के मारे किसी से बताते भी ना हो। अंततः इस व्यक्ति ने अपने घनिष्टतम मित्र से अपनी कठिनाई बताने की सोची। एक सच्चा मित्र इस प्रकार की दुर्घटनाओं पर आज की "हर एक फ्रेंड कमीना होता है" वाली निर्लज्ज पीढ़ी के सामान हँसता नहीं, अपितु अपने मित्र की सहायता करता है। उस मित्र ने अपने सच्चे मित्र होने का प्रमाण देते हुए अत्यंत गम्भीरतापूर्वक इस समस्या के निवारण हेतु एक उपाय सुझाया—उसने सुना था कि दूर जंगल में एक सपेरा रहता है, जिसकी बीन सुन कर चाहे कैसा भी साँप हो, सम्मोहित हो कर अपने बिल से बाहर आ जाता था।
मित्र का संकेत समझते ही इन महानुभाव ने अपनी समस्या पुनः समझाई कि उसे किसी अन्य के समक्ष जाते हुए लज्जा आएगी, और प्रार्थना की कि बीन बजा कर नाग को बाहर निकालने का प्रयत्न मित्र ही करे । मित्र ने अपनी जी-जान लगा कर बीन बजाई। बीन बजते ही नाग बाहर निकलने लगता, परन्तु शीघ्र ही किसी कारणवश बीन का सम्मोहन टूट जाता और वह पुनः अपनी 'बाम्बी' में प्रवेश कर जाता। यह क्रिया पूरे एक प्रहर तक चलती रहने के पश्चात दोनों मित्रों ने थक-हार कर सपेरे के पास ही जाने का निश्चय किया। अब जैसे ही सपेरे ने बीन में फूँक मारी, बूढ़ा नाग बाहर आने लगा। अब जब नाग पूर्णतया बाहर आने ही वाला था तब महानुभाव ने सपेरे को रोक दिया और घर आ गया। दूसरे दिन पुनः वह अपने मित्र के पास बीन ले कर पहुँच गया और उसे पुनः नाग को बाहर निकालने का प्रयत्न करने की विनती करने लगा। मित्र मान गया, पर पुनः विफलता ही हाथ लगी। इस प्रकार कुछ दिन ऐसे ही विफल प्रयासों के पश्चात मित्र ने ना कर दी। महानुभाव ने मित्र के चरण पकड़ लिए, सहायता करने के लिए मित्र को नाना प्रकार के प्रलोभन भी दिए, परन्तु मित्र नहीं माना। अंत में मित्र एक शर्त पर माना—कि महानुभाव इस बात का रहस्योद्घाटन करें कि क्यों वे उस सपेरे के पास से लौट आये और केवल अपने मित्र से ही उपचार करवाना चाहते हैं। जब रहस्योद्घाटन के सिवा और कोई चारा नहीं दिखा तब महानुभाव लजाते हुए बोले,"क्योंकि आनंद आता है"
—इस प्रकार इस लघुकथा का अंत होते ही दोनों मित्र दानवों जैसे ठहाके लगाने लगे। छी! माने, इनका तर्क ये था कि टाइम्स नाउ एवं महामहिम अर्नब गोस्वामी जी को लोगों की गालियाँ खाने पर आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है? ऐसा भी कभी होता है भला?
क्या लोग जानते नहीं कि पत्रकार लोग सर्वज्ञाता होते हैं? उन्हें क्रिकेट के मैदान से ले कर युद्ध की रणभूमि तथा परमाणु भौतिकी (न्युक्लीअर फिजिक्स) से ले कर अर्थशास्त्र - हर विषय में महारथ प्राप्त होती है ! जब इतना सब जानते हैं पत्तरकार लोग, तो सिंह साहब के कटाक्ष नहीं समझ पाएंगे क्या? नहीं मतलब, कमाल करते हो यार! सच बात तो ये है कि लोगों को ही कटाक्ष नहीं समझ आते, तभी तो वे टाइम्स नाउ वालों के कटाक्ष नहीं समझ पाये! अब भी नहीं समझे? अरे बंधू, जनरल साहब के कटाक्ष के प्रत्युत्तर में टाइम्स नाउ वालों ने भी कटाक्षों से पेंच लड़ाई थी—वे सिंह सा'ब के साथ कटाक्ष-कटाक्ष खेल रहे थे, और जनता ने इस बात को गंभीरता से ले लिया और लगे टाइम्स नाउ और अर्नब गोस्वामी जैसे महाज्ञानियों को अंट-शंट कहने। अरेरेरे! क्या समय आ गया है, घोर कलजुग है भइया, घोर कलजुग! क्या यही हैं अच्छे दिन? मोदी जी उत्तर दें।
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