जानिये संसार के तनावों तथा कुतर्कियों के कुतर्क झेलने का गुरुमंत्र

आजकल कई लोगों को कुढ़-कुढ़ कर आपियों को गरियाते देखता हूँ। स्वयं हम भी कभी-कभी अपने यहाँ के बुद्धिजीवी छद्म-सेक्युलर, वामपंथियों(लेफ्टिस्ट) तथा उदारवादी(लिबरल) मित्रों से खिज उठते हैं। आप में से भी कइयों का लोगों के भाँति-भाँति के कुतर्क देख गदा ले कर इनपर तांडव करने का अवश्य मन करता होगा। कार्यालय/ऑफिस तथा यहाँ-वहाँ के भी झंझट मस्तिष्क की रही सही 'मइया' कर जाते हैं। ऐसे में जो मानसिक तनाव उत्पन्न होता है उससे निजी जीवन में भी दुष्प्रभाव पड़ने की संभावनाएं उछाल मार जाती हैं। ऐसी स्थिति में कोई संतुलन(बैलेंस) तथा सामंजस्य(हारमनी) कैसे लपके? हम अपने अनुभव लिख रहे हैं, आशा है हम जिस विचार की गोली को अवसाद-निरोधक अर्थात 'एंटी-डिप्रेसेंट' की भाँति प्रयोग करते हैं वह आपके भी काम आएंगे।


एक समय था जब हम भी कभी उसी बात को सही समझ बैठते थे जो दस लोग कह रहे होते थे - सेकुलरिज्म, नारी का सम्मान, वर्ण/जाती प्रथा का अभिशाप, धर्म में रीति-रिवाज़ों का ढकोसला, फलाना-ढिमका। 'आदर्शवाद' का बुखार चरम पर था। ये तब था जब नव-यौवन की पहली सीढ़ी पर पहला पग रखा था हमने। मतलब 'टीनएज' में एक प्रकार के 'आपटार्ड' ही थे हम भी। परन्तु प्रभु की कृपा ही है कि हर 'सत्य' को पकड़ कर उसे पुचकारते तथा उसके संग रासलीला रचाते नहीं बैठे, उसे अनुभवों, अनुसंधान(रिसर्च) तथा तर्कों की कसौटी पर निरंतर कसते रहे, आज भी यह क्रम बना हुआ है। पूर्ण-सत्य पर से धूल हटी तो अर्धसत्यों की पहचान हुई। कितने ही तर्कों को परखा तो कोरे कुतर्क सामने आये। एक चरम(एक्सट्रीम) विचारधारा से दूसरे चरम तक और पुनः लौट एक संतुलित मध्य-बिंदु पर अब खड़े हो 'महाभारत' देख रहे हैं। सेकुलरिज्म कब 'तुष्टिकरण' में बदल गया, नारी सशक्तिकरण कब पुरुष-प्रताड़ना में परिवर्तित हो गया पता ही नहीं चला। जिन रीति-रिवाज़ों को ढकोसला बता दिया गया था उनमें से कइयों में गूढ़ विज्ञान तथा सोच प्रकट हो गयी। जाती प्रथा को जो लोग अन्याय का प्रतीक मानते हैं वे सवर्णों को गालियाँ देते थकते नहीं; साथ ही एक नयी जाती प्रथा जन्म ले चुकी है - फिल्म स्टारों के चूज़े फिल्मस्टार, इंजीनियर के बच्चे इंजीनियर तथा दीन(गरीब) के बच्चे दीन ही रह जाते हैं। छुआ-छूत तो आज के मॉडर्न समाज में भी है - कोई गटर साफ करने वाले के हाथों का पानी पी कर दिखा दे मुझे! अपवाद हर क्षेत्र में होते हैं। साथ ही शास्त्रों का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि वर्णाश्रम कोई कठोर नहीं अपितु लचीली व्यवस्था थी, तभी एक दासी-पुत्र महात्मा विदुर कहलाये। 'अंगराज' कर्ण का जाती के आधार पर उपहास करने वाली पांचाली को भी उसके दुष्परिणाम भोगने पड़े। रामायण लिखने वाले 'वाल्मीकि' आज जिस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं वह सर्वविदित है ही।

हर आस्था को प्रश्नों की कसौटी पर कसना अनिवार्य है, बिन आलोचना हर आस्था खोखली होने लगती है। पर केवल प्रश्न ना हों, उनके उत्तर ढूंढने के सच्चे तथा निष्कपट प्रयत्न भी हों, तभी सोने का कुंदन होगा। वरना पीतल पर सोने का पानी चढाने वाले तो असंख्य ठग पग पग पर मिलते हैं; कुछ गेरुए, हरे तथा श्वेत वस्त्रों में तो कई मॉडर्न परिधानों में। मज़े की बात यह है कि राइट-विंग राष्ट्रवादियों की सबसे अधिक आलोचना करने वाले वामपंथी, रूढ़िवादियों पर जूते फेंकने वाले उदारवादी तथा प्रगतिशील, गोडसे के नाम पर खखार कर थूकने वाले गाँधीवादी इत्यादि अपनी आलोचना के दो शब्द सुनते ही ऐसे उछल पड़ते हैं जैसे किसी ने इनकी पिछवाड़े पर जलती अगरबत्ती छुआ दी हो। हर कोई अपने सत्य को ही पूर्णसत्य मान कर भिड़ा पड़ा है। कदाचित यही सही भी है, नहीं तो खेल का आनंद कहाँ आ पायेगा!

खेल? हाँ, खेल ही तो है... और हम सब खिलाडी! कोई यदि यह कहे कि मुझे पूर्णसत्य का ज्ञान हो गया है अतएव मैं इस खेल से ऊपर हूँ, मैं नहीं खेलूंगा, तो समझ जाइये कि किसी निपट चूतिये से पाला पड़ गया है आपका। ज्ञान की दुहाई दे कर तटस्थ रहना या दोनों पालों(टीम) से खेलने वालों का हाल 'महात्मा बर्बरीक' जैसा होता है - युद्धपूर्व ही सर काट कर केवल महाभारत युद्ध देख पाये थे महात्मा बर्बरीक। सत्य का ज्ञाता तो श्री कृष्ण सा दोगुने उत्साह से आनंद ले कर खेल में कूद पड़ता है। खेल के उतार-चढ़ाव से ना ही हतोत्साहित होता है, ना प्रसन्नता में नग्न नाचने लगता है - वह स्थितप्रज्ञ रहता है। 

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: ।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।
- श्रीमद्भगवद्गीता ०२:५६

दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता,
सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है
तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं,
ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है ।

संसार एक कबड्डी का खेल है और हम सब खिलाडी… तभी यहाँ खिलाडी 'मरते' भी है और फिर जीवित भी हो उठते हैं। यही जन्म-मरण का चक्र है। बात समझ में आ गयी हो तो बांधिए लंगोट, चुनिए अपना पाला और मैदान की मिटटी को माथे पर मल कर कूद पड़िये अपनी भूमिका निभाने। कबड्डी कबड्डी कबड्डी ;)
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